पढ़ पढ़ आलम फाज़ल होया कददे अपने आप नु पढिया ही नहीं
कितना झूठ है इस दुनिया में. लगभग सब कुछ झूठा है,जनम से लेकर मौत तक इंसान सिवा झूठ को जीने के कुछ नहीं करता.
एक भी ऐसा शख्स नहीं जहाँ में जिसके अपने झूठ न हो.बचपन से लेकर अब तक न जाने कितने झूठ सुने बोले और देखे हैं कई बार
तो सच को भी इतना घबरा के बोलना पड़ता है मानो पाप झूठ बोलने पे नहीं सच बोलने पे लगता हो. आखिर क्या है जिसे हम इस तरह से झूठ बोल बोल के जीवन में पाना चाहते हैं .
हमें शर्म भी नहीं आती ,शर्म की छोडो अहसास तक नहीं होता की हम झूठ बोल रहे हैं. आखिर क्या मकसद है दुनिया में सच और झूठ दोनों के होने का क्या कोई बड़ा छोटा भी है इनमे
या दोनों एक ही सामान है ? नहीं एक सामान होते तो फिर दो क्यूँ होते एक ही शब्द में समेटे जाते दोनों.तो क्या सच बड़ा है और झूठ छोटा अगर ऐसा है तो बड़ी को छोड़ हम छोटी बात का सहारा क्यूँ लेते हैं ?
और विरोधाभास देखिये ,गुरु को ब्रह्मा की उपाधि दी गई है,ब्रह्म यानी वो चीज़ जो सत्य है.गुरु हमें सिखाता है की "झूठ बोलना पाप है " मैंने पुछा गुरूजी जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए ?
गुरूजी बोले पढ़ लिख के अफसर बनो नाम-प्रसिद्दी कमाना यही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए. क्या वाकई अफसर बन नाम कमा के मर जाना ही इस संसार का सत्य है?नहीं इतने अनमोल
कहे जाने वाले जीवन का ये तुच्छ और झूठ सा लगने वाला नाम सत्य नहीं हो सकता.क्यूँ के ये नाम तो कुछ सौ सालों तक रहेगा फिर भुला दिया जायेगा या किसी झूठे के द्वारा झूठ्ला दिया
जायेगा.मने गुरु ने जो कहा वो सत्य नहीं झूठ है.
माँ-बाबा ..संसार के पालनहार विष्णु होंगे पर मेरे लिए मेरे पालनहार मेरे माँ बाप है.और खुद इश्वर ने माँ बाप को देव बताया है.देव यानी सत्य को समझने वाले.उनसे हमने धर्म शास्त्र के अध्ययन को जाना.
लग गए अध्ययन में,एक दिन अचानक कहीं से विवेकानंद की किताब हाथ लग गई -प्रेमयोग/भक्तियोग उसमे जो कुछ लिखा था उसे पढ़ के मन के भीतर गहराई तक एक बात बैठ गई की सारी दुनिया एक माया है और यहाँ जो कुछ है वो एक भ्रान्ति है
बस उसका असर था की मन में एक तरह का बैराग सा जाग उठा.ध्यान,योग,भजन,सत्संगत,प्रकृति से जुड़ाव,जीव पे दया,सब का आदर सम्मान,जांत पांत की अनदेखी और मानवता को धर्म मानना एक लत सी बन गई ऐसी लत जो मन को सुकून दे रही थी
पर मेरा सुकून मेरे माँ बाबा के लिए असंतोष बनता जा रहा था.पता नहीं क्यूँ मुझसे बाबा ने पूछ लिया -आगे क्या सोचा है ? मैं तो बैरागी हो चला था मुह से सहज ही निकल पड़ा आगे "हरि इच्छा बलवान" ..! मैं मेरा काम कर रहा हूँ बाबा,आप बताओ आगे क्या
करना चाहिए? बाबा निशब्द थे पर अपने यथार्थ में लौटते हुए बोले,कोई पढ़ाई लिखाई करनी है तो करो नहीं तो कोई काम धंधा देखो.जीवन का गुजारा चलाना सीखो.मैंने बाबा से सीखे शास्त्र अध्ययन से जाने हुए सत्य को सामने रखा बाबा शास्त्रों में लिखा है
इंसान को भगवद भक्ति करनी चाहिए बाकी "योगक्षेमं वहाम्यहम ".बाबा पता नहीं किस बात पे चिढ गए ऐसा क्या असत्य मैंने बोल दिया ? बोले ज्यादा विवेकानंद मत बन...!! मैं तो जैसे ठगा सा गया ,मैंने कहा बाबा विवेकानंद के बारे में ऐसे बोल के आप क्या कहना चाहते हैं क्या वो कोई बेकार आदमी थे? अब बाबा पहले से ज्यादा तेज आवाज में बोले तुझे जो करना है कर पर मैं ऐसे जीवन भर तुझे पालने वाला नहीं हूँ,सामान उठा और निकल ले यहाँ से कल ही.
हम दोनों को जिरह करते देख माँ बीच में आई और बोली तू चुप नहीं रह सकता क्या ?जा उठ यहाँ से और काम कर अपना.मैं उठा और चल दिया कुछ अनसुलझे सवालों के साथ मुझे लगा माँ तो सब समझती है बाबा से ज्यादा धार्मिक है बात को समझेगी या समझायेगी.कुछ देर बाद माँ आई और बोली, सारी जिंदगी यहाँ खेतों में पच पच के तुझे और तेरी बहन को पढाया लिखाया तेरी बहन की शादी की,ये घर बनाया,तुम लोगो को कभी कोई चीज़ की कमी नहीं होने दी खुद भले थोड़े में जिए.पर तुझे हमेशा खूब देने की कोसिस की.ये सोच कर की तू बड़ा होगा पढ़ लिख के पैसा नाम कमाएगा,यहाँ से खुद भी निकलेगा और हमें भी निकालेगा.लेकिन तुझे पता नहीं कहाँ से ये ज्ञान मिला है.अब मैं उस स्थिति में था जहाँ मेरे लिए ये समझ पाना असंभव था की सच क्या है और झूठ क्या.मैंने अपने सारे तर्क दे दिए पर माँ की बात के आगे सब फीके लगे.लगा की नहीं माँ-बाबा का दिल दुखा के धर्म के मार्ग पे नहीं चला जा सकता.आखिर एक अधर्म से धर्म की सुरुआत कैसे हो सकती है.इसका मतलब है धर्म में भी विरोधाभास है अर्थात सत्य और झूठ की परिभाषा संसार में स्पष्ट नहीं है.क्यूँ के अगर योगक्षेमं वहाम्यहम है तो आखिर ये बात क्यूँ कही गई और किसके लिए ? क्या सिर्फ विवेकानंद के लिए और उनके लिए ही ये बात सत्य क्यूँ है ? क्यूँ मेरे लिए ये बात असत्य है ? सवाल अब भी अनसुलझे थे खैर समय का चक्र चला और गाँव के उस आँगन के साथ ही छूट गया धर्म से अपना नाता.अब मैं दोनों में से एक ही बात को सत्य मान सकता हूँ और स्वाभाविक रूप से वो बात शास्त्रों में नहीं लिखी गई है इसलिए मैंने माँ बाबा की बात को सत्य माना और चल पड़ा सत्य (पैसे ,नाम ,प्रसिद्धी ) की खोज में.
सब कुछ छोड़ दिया या कहूँ छूट गया नहीं छूटा तो मन से बैराग अब भी यदाकदा जब किसी गरीब भूखे बच्चे को सिग्नल पे खड़ी चमचमाती वातानुकूलित कार के अंदर बैठे अमीर बर्गर खाते बच्चे से भीख मांगते देखता हूँ , तो मन विचलित हो जाता है और फिर जाग उठता है मेरा बैराग .फिर वो ही सवाल उठते हैं मन में की आखिर क्या है जीवन का सत्य ?क्यूँ ये दुनिया इधर से उधर भागती फिर रही है क्या यूँ भाग दौड़ करते हुए मर जाना ही इंसान की नियति है ?अगर ऐसा है तो फिर ये बड़े बड़े शास्त्र क्यूँ है? क्यूँ विवेकानंद को देवपुरुष कह के उनको सम्मान दिया जाता है जब कोई माँ बाप ये नहीं चाहते की उनका बेटा विवेकानन्द बने .आखिर क्यूँ ?
मैं अपने छोटे से जीवन में एक बात तो तय रूप से जान गया हूँ की आज की दुनिया में जीने वाला स्वार्थ के आगे नहीं बढ़ सकता.अगर उसे नाम पैसा प्रसिद्धि चाहिए तो स्वार्थी बनना पड़ेगा.बल्कि उसे इसे अपना स्वभाव बनाना पड़ेगा और एक बार जो गृहस्थ बन गया फिर उसका इस स्वाभाव को त्यागना असंभव ही है.तो अगर स्वार्थ ही सत्य है तो फिर क्या परमार्थ झूठ है? हो सकता है मेरे इन् सवालों का आप के पास जवाब हो पर वो जवाब सत्य है या झूठ ये तय कैसे हो ?क्यूँ के यहाँ झूठ और सच में बड़ा कौन है ये तय नहीं है ,क्यूँ के सत्य और झूठ परिभाषित नहीं है .फिर भी हम चले जा रहे हैं अपने अपने सच या कहूँ झूठ के साथ..!!
कितना झूठ है इस दुनिया में. लगभग सब कुछ झूठा है,जनम से लेकर मौत तक इंसान सिवा झूठ को जीने के कुछ नहीं करता.
एक भी ऐसा शख्स नहीं जहाँ में जिसके अपने झूठ न हो.बचपन से लेकर अब तक न जाने कितने झूठ सुने बोले और देखे हैं कई बार
तो सच को भी इतना घबरा के बोलना पड़ता है मानो पाप झूठ बोलने पे नहीं सच बोलने पे लगता हो. आखिर क्या है जिसे हम इस तरह से झूठ बोल बोल के जीवन में पाना चाहते हैं .
हमें शर्म भी नहीं आती ,शर्म की छोडो अहसास तक नहीं होता की हम झूठ बोल रहे हैं. आखिर क्या मकसद है दुनिया में सच और झूठ दोनों के होने का क्या कोई बड़ा छोटा भी है इनमे
या दोनों एक ही सामान है ? नहीं एक सामान होते तो फिर दो क्यूँ होते एक ही शब्द में समेटे जाते दोनों.तो क्या सच बड़ा है और झूठ छोटा अगर ऐसा है तो बड़ी को छोड़ हम छोटी बात का सहारा क्यूँ लेते हैं ?
और विरोधाभास देखिये ,गुरु को ब्रह्मा की उपाधि दी गई है,ब्रह्म यानी वो चीज़ जो सत्य है.गुरु हमें सिखाता है की "झूठ बोलना पाप है " मैंने पुछा गुरूजी जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए ?
गुरूजी बोले पढ़ लिख के अफसर बनो नाम-प्रसिद्दी कमाना यही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए. क्या वाकई अफसर बन नाम कमा के मर जाना ही इस संसार का सत्य है?नहीं इतने अनमोल
कहे जाने वाले जीवन का ये तुच्छ और झूठ सा लगने वाला नाम सत्य नहीं हो सकता.क्यूँ के ये नाम तो कुछ सौ सालों तक रहेगा फिर भुला दिया जायेगा या किसी झूठे के द्वारा झूठ्ला दिया
जायेगा.मने गुरु ने जो कहा वो सत्य नहीं झूठ है.
माँ-बाबा ..संसार के पालनहार विष्णु होंगे पर मेरे लिए मेरे पालनहार मेरे माँ बाप है.और खुद इश्वर ने माँ बाप को देव बताया है.देव यानी सत्य को समझने वाले.उनसे हमने धर्म शास्त्र के अध्ययन को जाना.
लग गए अध्ययन में,एक दिन अचानक कहीं से विवेकानंद की किताब हाथ लग गई -प्रेमयोग/भक्तियोग उसमे जो कुछ लिखा था उसे पढ़ के मन के भीतर गहराई तक एक बात बैठ गई की सारी दुनिया एक माया है और यहाँ जो कुछ है वो एक भ्रान्ति है
बस उसका असर था की मन में एक तरह का बैराग सा जाग उठा.ध्यान,योग,भजन,सत्संगत,प्रकृति से जुड़ाव,जीव पे दया,सब का आदर सम्मान,जांत पांत की अनदेखी और मानवता को धर्म मानना एक लत सी बन गई ऐसी लत जो मन को सुकून दे रही थी
पर मेरा सुकून मेरे माँ बाबा के लिए असंतोष बनता जा रहा था.पता नहीं क्यूँ मुझसे बाबा ने पूछ लिया -आगे क्या सोचा है ? मैं तो बैरागी हो चला था मुह से सहज ही निकल पड़ा आगे "हरि इच्छा बलवान" ..! मैं मेरा काम कर रहा हूँ बाबा,आप बताओ आगे क्या
करना चाहिए? बाबा निशब्द थे पर अपने यथार्थ में लौटते हुए बोले,कोई पढ़ाई लिखाई करनी है तो करो नहीं तो कोई काम धंधा देखो.जीवन का गुजारा चलाना सीखो.मैंने बाबा से सीखे शास्त्र अध्ययन से जाने हुए सत्य को सामने रखा बाबा शास्त्रों में लिखा है
इंसान को भगवद भक्ति करनी चाहिए बाकी "योगक्षेमं वहाम्यहम ".बाबा पता नहीं किस बात पे चिढ गए ऐसा क्या असत्य मैंने बोल दिया ? बोले ज्यादा विवेकानंद मत बन...!! मैं तो जैसे ठगा सा गया ,मैंने कहा बाबा विवेकानंद के बारे में ऐसे बोल के आप क्या कहना चाहते हैं क्या वो कोई बेकार आदमी थे? अब बाबा पहले से ज्यादा तेज आवाज में बोले तुझे जो करना है कर पर मैं ऐसे जीवन भर तुझे पालने वाला नहीं हूँ,सामान उठा और निकल ले यहाँ से कल ही.
हम दोनों को जिरह करते देख माँ बीच में आई और बोली तू चुप नहीं रह सकता क्या ?जा उठ यहाँ से और काम कर अपना.मैं उठा और चल दिया कुछ अनसुलझे सवालों के साथ मुझे लगा माँ तो सब समझती है बाबा से ज्यादा धार्मिक है बात को समझेगी या समझायेगी.कुछ देर बाद माँ आई और बोली, सारी जिंदगी यहाँ खेतों में पच पच के तुझे और तेरी बहन को पढाया लिखाया तेरी बहन की शादी की,ये घर बनाया,तुम लोगो को कभी कोई चीज़ की कमी नहीं होने दी खुद भले थोड़े में जिए.पर तुझे हमेशा खूब देने की कोसिस की.ये सोच कर की तू बड़ा होगा पढ़ लिख के पैसा नाम कमाएगा,यहाँ से खुद भी निकलेगा और हमें भी निकालेगा.लेकिन तुझे पता नहीं कहाँ से ये ज्ञान मिला है.अब मैं उस स्थिति में था जहाँ मेरे लिए ये समझ पाना असंभव था की सच क्या है और झूठ क्या.मैंने अपने सारे तर्क दे दिए पर माँ की बात के आगे सब फीके लगे.लगा की नहीं माँ-बाबा का दिल दुखा के धर्म के मार्ग पे नहीं चला जा सकता.आखिर एक अधर्म से धर्म की सुरुआत कैसे हो सकती है.इसका मतलब है धर्म में भी विरोधाभास है अर्थात सत्य और झूठ की परिभाषा संसार में स्पष्ट नहीं है.क्यूँ के अगर योगक्षेमं वहाम्यहम है तो आखिर ये बात क्यूँ कही गई और किसके लिए ? क्या सिर्फ विवेकानंद के लिए और उनके लिए ही ये बात सत्य क्यूँ है ? क्यूँ मेरे लिए ये बात असत्य है ? सवाल अब भी अनसुलझे थे खैर समय का चक्र चला और गाँव के उस आँगन के साथ ही छूट गया धर्म से अपना नाता.अब मैं दोनों में से एक ही बात को सत्य मान सकता हूँ और स्वाभाविक रूप से वो बात शास्त्रों में नहीं लिखी गई है इसलिए मैंने माँ बाबा की बात को सत्य माना और चल पड़ा सत्य (पैसे ,नाम ,प्रसिद्धी ) की खोज में.
सब कुछ छोड़ दिया या कहूँ छूट गया नहीं छूटा तो मन से बैराग अब भी यदाकदा जब किसी गरीब भूखे बच्चे को सिग्नल पे खड़ी चमचमाती वातानुकूलित कार के अंदर बैठे अमीर बर्गर खाते बच्चे से भीख मांगते देखता हूँ , तो मन विचलित हो जाता है और फिर जाग उठता है मेरा बैराग .फिर वो ही सवाल उठते हैं मन में की आखिर क्या है जीवन का सत्य ?क्यूँ ये दुनिया इधर से उधर भागती फिर रही है क्या यूँ भाग दौड़ करते हुए मर जाना ही इंसान की नियति है ?अगर ऐसा है तो फिर ये बड़े बड़े शास्त्र क्यूँ है? क्यूँ विवेकानंद को देवपुरुष कह के उनको सम्मान दिया जाता है जब कोई माँ बाप ये नहीं चाहते की उनका बेटा विवेकानन्द बने .आखिर क्यूँ ?
मैं अपने छोटे से जीवन में एक बात तो तय रूप से जान गया हूँ की आज की दुनिया में जीने वाला स्वार्थ के आगे नहीं बढ़ सकता.अगर उसे नाम पैसा प्रसिद्धि चाहिए तो स्वार्थी बनना पड़ेगा.बल्कि उसे इसे अपना स्वभाव बनाना पड़ेगा और एक बार जो गृहस्थ बन गया फिर उसका इस स्वाभाव को त्यागना असंभव ही है.तो अगर स्वार्थ ही सत्य है तो फिर क्या परमार्थ झूठ है? हो सकता है मेरे इन् सवालों का आप के पास जवाब हो पर वो जवाब सत्य है या झूठ ये तय कैसे हो ?क्यूँ के यहाँ झूठ और सच में बड़ा कौन है ये तय नहीं है ,क्यूँ के सत्य और झूठ परिभाषित नहीं है .फिर भी हम चले जा रहे हैं अपने अपने सच या कहूँ झूठ के साथ..!!