Monday, December 23, 2013

आप की, आप के द्वारा, आप से उम्मीद .....

आज वो हुआ जिसका मैंने  कभी सपना भी नहीं देखा था,और न कभी सुना था .  विरासत में मिली देश की स्थापित राजनैतिक आम समझ कभी इस ओर गई ही नहीं के ऐसा कुछ  सोच पाते. मझे याद है करीब २ साल पहले जब मैं ट्विटर पे नया नया आया था और इस विद्या को सीखने और समझने की कोशिश में लगा था ठीक उसी समय अन्ना आन्दोलन शरू होने को था...देश की २५-३५  साल उम्र वाली पीढ़ी एक ऐसे अजब माहोल को देखने वाली थी जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था .देश की सामजिक -राजनैतिक व्यवस्था से दुखी आम जनता इससे दुखी होकर भी उसमे इस तरह से सम्मिलित थी की ऊपर से देखने से ऐसा लगता मानो इसका कोई तोड़ नहीं है और ये हज़ारो सालो से ऐसे ही चलती आई है और चलेगी ..किसी पंडित से पूछो तो वो इसे कलियुग कहता घोर कलियुग. अन्ना से पहले कभी किसी के मुह से ऐसा नहीं सुना की ये बदल सकता है ...चारो तरफ नकारात्मकता दिखाई देती थी और जिसका भी आभास भी नहीं था मुझे तो कम से कम .. एक वाक्य में कहूँ तो सत्ता निरंकुश थी और प्रजा उदासीन ....!

फिर अचानक वो हुआ जो फिल्मी सा लगता ..पहली बार किसी इंसान को सीधे संसद से भिड़ते देखा ,पहली बार कोई सत्य के लिए जिद पे अड़ गया ..और अचानक से न जाने कहाँ से उसके इर्द गिर्द ऐसे लोगों का जमावड़ा लगने लगा जो अन्ना के समान ही जिद्दी थे ,सत्य के साथ रह के दबंग नजरिया रखने वाले ..बुलंद आवाज के साथ सरकार को ललकारने वाले ...देखते ही देखते देश की राजधानी में हजारों लाखों लोग इकट्ठे हो गए एक जगह एक मकसद के लिए ..और मकसद ऐसा जिसका मैंने इससे पहले कभी ज़िक्र तक नहीं सुना पर हाँ जरूरत महसूस होती थी ऐसी किसी व्यवस्था की जो किसी को बक्शे नहीं ..जिसके पास शक्ति हो ..सामर्थ्य हो निरंकुश सत्ता से लड़ने का ".. आन्दोलन अपने चरम पे पहुँचने वाला था तभी कुछ ऐसा हुआ की मन अचानक से यथार्थ में लौट आया... जिस दिन अन्ना ने संसद के वादे के बाद अनशन तोडा उसकी पहली  रात ठीक ऐसा महसूस हो रहां था जैसा सचिन तेंदुलकर ९९ पे खेल रहे हो और अचानक आउट हो जाने पे होता है ..आन्दोलन ख़त्म ,चर्चा ख़त्म और सब सामान्य ..

आन्दोलन के बाद मेरा मन व्यथित रहने लगा मैं अपनी व्यथा को ट्विटर के माध्यम से बांटने लगा और धीरे धीरे मझे महसूस हुआ की देश में मेरे जैसे लाखो करोडो है ..इस दौरान मुझे कुछ ऐसे लोग मिले जिनका सानिध्य पाकर मैंने देश,समाज,राजनीती,व्यवस्था जैसे शब्दों को नए सिरे से जाना और यकीन मानिए ये मेरी पढ़ी स्कूली किताबों से बिलकुल उल्टा था ..यानी जो कुछ भी मैं जानता था सब एक तरफ़ा लिखा हुआ लेख था ..पहले जहाँ सरकार का  मतलब मेरे लिए चुनी हुई सरकार और विपक्ष  से था अब इसकी परिभाषा सरल और  व्यापक हो गई अब सरकार का मतलब ग्राम सभा हो गया .. ऐसे ही अपने ज्ञानकोष को बढाते हए मेरे शब्दकोष में कुछ नए शब्द जुड़े स्वराज,विकेंद्रीकरण,सत्याग्रह,ग्रामसभा,भागीदारी,लोकपाल,अधिकार,जे.पी आन्दोलन,सूचना का अधिकार,आदि आदि ...इन सबके बारे में जानने के बाद अचानक पता चला वो जो अना के साथी थे उनमे से कुछ लोग राजनैतिक पार्टी बना रहे हैं ,जिनका नेतृत्व अरविन्द केजरीवाल ने लिया है ,अरविन्द कौन ? वो ही अरविन्द जिसने अन्ना का साथ दिया और जिसने अपनी सरकारी नोकरी छोड़ के समाज सेवा का जिम्मा ठाया है ..सुना है बहत इमानदार है बन्दा...एक किताब लिखी है स्वराज नाम से उसका कहना है की देश की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जैसी किताब में लिखी है ..जब मैंने उस किताब को पढ़ा तो अनायास ही मैं सहमत हो गया की हाँ बात तो सही है व्यवस्था तो ऐसी ही होनी चाहिए ///इसके पहले गांधी जी के मार्ग को पढ़ा था और बहुत पहले से ये धारना मन में थी की विकाश का ये नेहरु मॉडल देश को विनाश की और ले जा रहा है ..जब की गांधी का मोडल ज्यादा बेहतर था ..पर वो था क्या इसका पता नहीं था जब स्वराज को पढ़ा तो फिर हिन्द स्वराज को भी पढ़ डाला ..और ये समझ बनी के हालाँकि हिन्द स्वराज पूर्ण  राम राज की व्यवस्था है पर आज के परिपेक्ष में स्वराज ज्यादा सटीक और संभव सा प्रतीत होता है ..जब के स्वराज निकली उसी हिंद्स्वराज से है..फिर भी ...

पिछले साल जब आम आदमी पार्टी बनी तो मन किया दिल्ली वाली सभा में जाऊं ताकि एक राजनैतिक पार्टी का FOUNDER MEMBER  बन सकूँ लेकिन फिर  स्वराज की याद आई तो लगा की क्या फर्क पड़ता है स्वराज का मकसद तो देना है पाना है ही नहीं ...खैर,पार्टी बनने के बाद जो घटनाक्रम चला और तमाम तरह की अटकलें लगाने लगी की ये फलां फलां की बी टीम है ये न वो ...उन सबसे मन आशंकित रहता की जाने क्या होगा ,भूतकाल में जो कुछ देखा था उसे देख के लगता था की ४-५ सीट जीत के संघर्ष करते रहेंगे ..और ये व्यवस्था १५-२० साल ऐसे ही रहेगी कम से कम ..पर जैसे जैसे दिन महीने बीतते गए माहोल गर्माता गया और चुनावी महीने के आते आते चर्चा होने लगी की आम आदमी पार्टी को ३५ सीटें आएँगी फॉर ४५ हो गई ..हालांकि ये खुद आप का मंथन था .पर जब सारे परिपेक्ष को देखता तो लगता हाँ यार मीडिया की आम आदमी पार्टी को ले के उदासीनता के बावजूद भी आप इतनी चर्चा में है ..और कांग्रेस की आलोचना करने के बाद कुछ ऐसा बचता ही नहीं की से बड़ा कर के दिखाया जाये ..यानी देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा देश की राजधानी के चुनावी परिपेक्ष में कहीं टिकती नजर नहीं आ रही ...एक तरफ आप है दसरी तरफ कांग्रेस ...तब मीडिया ने आप को दिखाना शुरू किया और मेरा भी होंसला बढ़ने लगा और अब मैं ये मानने लगा की १५-२० सीट तो आएगी ... फिर योगेन्द्र यादव जैसे विनम्र लोगो के मुंह से सुनके और भी भरोसा होने लगता ..बहरहाल

दिल्ली में चुनाव हुआ और आशा के अनुरूप नतीजे आये पर कांग्रेस और भाजपा में इतना भारी अंतर समझ के बाहर लगा...कांग्रेस इतनी कमजोर और भाजपा शसक्त कैसे हुई... सीटों का आंकड़ा ऐसा बैठा के किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था की अब होगा क्या ..भाजपा कोंग्रेस विरोधी हैं कोंग्रेस ,भाजपा और आप विरोधी है ,आप दोनों का विरोध करती आई है अब सरकार कौन बनाये जैसे ही आम आदमी पार्टी ने अपने चरित्र के अनुरूप विपक्ष में बैठने का ऐलान किया भाजपा घिर गई और सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद विपक्ष में बैठने के लिए लालायित दिखने लगी और बस यहीं से शुरू हुआ आलोचना ,परिलोचना का दौर..घोर अनैतिक दल और नेता भी अरविन्द केजरीवाल और उसकी पार्टी से नैतिकता के सवाल करने लगे ...दुबारा चुनाव नहीं होने चाहिए ,क्यूँ क्यूँ के इससे जनता पे अनावश्यक बोझ पड़ेगा ,तो क्या करें ?आप सरकार बनाओ . आप सरकार बनाये पर बड़ी पार्टी तो भाजपा है ? है पर उसके पास बहुमत नहीं है ,तो आप के पास कहाँ है ,कांग्रेस दे रही है न समर्थन . कांग्रेस आप को समर्थन देगी पर क्यूँ ? और आप को ये जोड़तोड़ की राजनीति करनी ही नहीं ..तो फिर हम ये मानेंगे की आप और अरविन्द ज़िम्मेदारी से दर गए ..वादे पुरे  कर नहीं सकते इसलिए भाग रहे हैं ....अच्छा ये बात है तो फिर हमें जनता से पूछने दो ..की आप की सरकार बनायें या नहीं ..? ये तो ढोंग है आपको सत्ता चाहिए थी मिल गई ..अरे हद है... जनता ने फैसला दिया की सरकार बने ..जैसे ही फैसला आया भाजपा ने कहना शुरू  कर दिया की ये तो हमें पहले ही पता था की आप कांग्रेस की बी टीम है ..सब पहले से पर्व निर्धारित था ..भाजपा को सत्ता से बाहर रखने की चाल थी ये ..कमाल है ...उलझा के रखने में ये लोग माहिर है ...खैर अब जब सरकार बनाने का दावा ठोंक दिया आप ने तो अब क्या होगा क्या सरकार चलेगी ? या अविश्वास मत आने से गिर जाएगी ...पता नहीं . पर इतना पता है की एक बार जो सरकार बन गई तो ६ महीने तो गिरेगी नहीं कम से कम लोकसभा चनाव तक ...और अगर ६ महीने रह गई तो कुछ ऐसे आमूल चूल परिवर्तन आएंगे की देश की राजनीती की हवा ही बदल जाएगी ...फिर सरकार गिर भी जाए आप विपक्ष में भी आ जाये तो भी किसी पार्टी के लिए सरकार बनाना और चलाना आसान नहीं होगा ...कम से कम गढ़बंधन की सरकार तो ...स्थापित निरंकुश सत्ता लोलप राजनीती के ऊपर आप का अंकुश लग चूका है ..अब देश में नैतिकता मापने का पैमाना तैयार हो गया है ..या कहूँ हो रहा है ...जब सरकार के सारे मंत्री और विधायक पैदल या बसों में बिना सिक्यूरिटी के आयेंगे तो कैसे कोई दूसरी पार्टी का नेता महँगी गाडी में ४-६ पोलिस वालों से घिर के आ सकता है ..जनता तो देखेगी न जी ....हाँ के ना ...

आज मनीष सिसोदिया का ये बयान उन साड़ी संभावनाओं को खारिज कर रहा है जो कहती है की आप ने उसूलों से समझोता किया है ,आप कांग्रेस को समर्थन देगी लोकसभा में आदि आदि ...
ना हमने किसी से समर्थन लिया है ना दिया है ये अल्पमत की सरकार है जिसे जब लगे सरकार गिरा दे हम जनता के लिये काम करते रहेंगे : Manish Sisodia







    BJP demands probe into Robert Vadra land deal in Rajasthan

Thursday, November 7, 2013

ज़िन्दगी लाइव...जारी है


कल रात की तेज़ हवा बारिश
बारिश से छिपते बचते लोहार

बारिश में बहा पटाखी कचरा
शान्ति से बीत चूका त्योंहार

गाँव की एक ठंडी सुबह
खेतों को जाते किसान

मंदिर में बजती घंटियां
मस्जिद से आती अजान

दरवाजे पे पड़ा अखबार
प्याले में पड़ी गरम चाय

छुट्टी के बाद खुलते स्कूल
अध्यापको की चुनावी राय

माँ ने बुहार दिया अल सुबह
बिखरा था आंवले का पत्ता


आँगन में कुर्सी पे बैठा मैं
दिल से निकली कविता

---जिंदगी जारी है

Saturday, October 19, 2013

नहीं आई ..!!

बहुत दिन हुए गाँव की कोई खबर नही आई
बालकनी में चूं चूं करती चिड़िया नही आई..!

सोसायटी में दशहरे पे रावण जलाया बच्चों ने
रामलीला के मंच से आह की आवाज़ नही आई..।

कल शाम जब  देखा शरद पूनम के चाँद को
सुबह इंतजार किया पर ठंडी खीर नही आई..।

दरवाज़े लगे घर होते होंगे साफ रोज ही शायद
दिवाली लौटी मोहल्ले में झाड़ू की आवाज़ नही आई..।

कोशिश करली हर तरह से त्योंहार मनाने की

दिल मे गम चेहरे पे खुशी वाली शहरी ताशीर नही आई ..।

Saturday, October 12, 2013

वैकल्पिक मीडिया का लोकतंत्र की मजबूती में योगदान ...!!

वैकल्पिक मीडिया यानी सोशल मीडिया यानी ट्वीटर,फेसबुक,वाट्सएप,लाइन ,आदि आदि ...ये आधुनिक दुनिया के वो ओजार हैं जिनमें किसी भी तंत्र को बनाने या मिटाने की काबिलियत है .. ये ठीक किसी लोहार के हथोडे की तरह है जिससे गरम लोहे को पीट के तलवार भी बनाई जाती है नाली साफ़ करने की खुरपी भी.मैं उस पीढ़ी का युवा हूँ जिसने जेपी का आंदोलन तो नहीं देखा लेकिन जेपी के आंदोलन से निकले ऐसे राजनेताओ का राज देखा है जिनकी करतूतों से लोकतंत्र शब्द से लोगो का भरोसा भंग होने लगा (खासकर युवा वर्ग का ) और २१वि सदी के प्रारंभ से पूर्व ऐसी राजनीती से त्रस्त देश के अलग अलग हिस्सों में लोग अपने स्तर पे उनकी आलोचना करते पाए जाते थे, लेकिन ऐसी अधिकांस बातें उन् लोगो तक पहुँच नहीं पाती थी ,सिर्फ वो ही बातें अखबारों या टीवी के माध्यम से आगे जाती जो टीवी या अखबार के संपादक को उचित लगती.और मुझे ये कहते जरा भी हिचक नहीं है की संपादको के लिए इमानदारी से संपादन करना इतना आसान नहीं था ..क्यूँ के बाजारवादी अर्थव्यवस्था में अर्थ महत्वपूरण है न की व्यवस्था.

इन्टरनेट की मूल अवधारणा आज़ादी है ..लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है और जब लाखो करोडो लोग किसी मुद्दे पे लिखित में बातें कानो में पड़े और आँखों से दिखे तो रहबरों के माथे पे पसीना तो आना लाज़मी है (क्यूँ के मिश्र की क्रांति हाल ही में पुरे विश्व ने देखि है जिसका छोटा रूप अन्ना और उनके साथियों ने भी दिखाया) और इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए सोशल मीडिया ज्यादा उपयोगी साबित होता है,क्यूँ के यहाँ किसी तरह की कोई बंधिस नहीं है कोई भी अपना अकाउंट बना के देश के किसी भी मुद्दे पे अपनी बात रख सकता है और देश के प्रधानमंत्री तक को अपनी बात पहुंचा सकता है. ये बात अलग है की यहाँ भी बहुमत से ही मुद्दे ट्रेंड करते हैं. सरकार के द्वारा चलाई गई किसी भी योजना के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोगो तक सुचना पहुंचाई जा सकती है.

२१वि सदी से के प्रारंभ से पहले जहाँ इन योजनाओ और कार्यक्रमों पे अपनी राय देना कुछ चुनिन्दा बुद्धिजीवी लोगो का ही काम था लेकिन अब ऐसा नहीं है अब किसी भी सरकारी निर्णय पे देश के करोडो लोग अपनी राय देते हैं और जिसका असर भी होता है दागी सांसदों पे सरकारी अध्यादेश का राहुल गांधी द्वारा विरोध और सरकार का उसे वापस लेना इसका ताज़ा उदहारण है, वरना तो जब सोशल मीडिया नहीं थी तो NDA सरकार द्वारा ऐसा ही एक अध्यादेश राष्ट्रपति कलाम के विरोध के बावजूद पास करा दिया गया,जिसका एक कारन था मीडिया का जनता की आवाज को दबा के रखने में सरकार का सहयोग करना (लोभ या दबाव के करानवश ) अब इसमें कोई ये भी कह सकता है की ये अध्यादेश तो इसलिए वापस हुआ क्यूँ के टीवी और अखबार में इसे लेकर खूब चर्चाएँ हुई , हाँ ये सच है की टीवी और अखबारो ने इस विरोध को महत्त्व से दिखाया लेकिन उन्हें ये विरोध दिखाने के लिए मजबूर होना पडा कारन था वैकल्पिक मीडिया पे हो रहा भारी विरोध और टिका टिपण्णी ...क्यूँ के हर समाचार पत्र और न्यूज चैनल सोशल मीडिया में सक्रीय है और सोशल मीडिया पे हो रहे विरोध को नजरंदाज करना उनके वश में नहीं था .. सही शब्दों में कहूँ तो टीवी और अखबार दोनों सही मायने में समाज का दर्पण सोशल मीडिया के आने के बाद ही बना है अन्यथा तो ये सब संपादको के ईमान पे चलता था .

किसी भी लोकतंत्र को मजबूत करने में इसके चौथे स्तंभ यानी मीडिया का अति महत्वपूर्ण स्थान होता है और मीडिया को मजबूत करने में सोशल मीडिया का महत्वपूर्ण स्थान है ..NDTV के पत्रकार रवीश कुमार की सोशल मीडिया के बारे में कही एक बात बहुत महत्त्व की है की "मानव इतिहास में लोगो की अभिव्यक्तियो का इतना बड़ा लिखित डाटाबेस आज से पहले कभी नहीं बना " और ये वाकई अपने आप में मानव की एक महान उपलब्धि है. अब कोई भी नेता बिना सर पैर के तथ्य देके लोगो को भ्रमित नहीं कर सकता क्यूँ के १५ करोड लोग ऐसे हैं जिनके पास गूगल नाम का अतिविशिष्ट हथियार है जिसपे एक सेकण्ड में उन् तथ्यों को सत्यापित किया जा सकता है .. इससे जिम्मेदार पदों पे बैठे लोगो पे दबाव तो बनता ही है की वो कुछ ऐसा न कह दें की बाद में जवाब देना भारी पड जाये .और जिस तरह से इन्टरनेट की पहुँच लोगो तक बढ़ रही है ये दबाव भी बढ़ता ही जा रहा है . अमेरिकी लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है की वहाँ लोगो की भावनाओं के खिलाफ कोई भी कदम सरकार नहीं उठा सकती कारन है ९०% से अधिक लोगो का इन्टरनेट और सोशल मीडिया पे सक्रीय होना .

(पिछले साल अन्ना आन्दोलन के दौरान  मैंने एक शब्द बार बार सुना वो है "स्वराज" इस शब्द के इससे पहले मेरे लिए जो मायने थे वो अरविन्द केजरीवाल की लिखित पुस्तक स्वराज और गांधी की हिंद स्वराज (जो मैंने स्वराज को पढ़ने के बाद पढ़ी )पढ़ने के बाद एकदम से बदल गए ..पहले जहाँ मैं अंग्रेजो को भगा के खुद के लोगो के राज को स्वराज समझता था क्यूँ के बाल गंगाधर तिलक ने जो नारा दिया था उसके यही मायने हमें स्कूल और कोलेज में पढाये गए थे लेकिन ये दोनों पुस्तकें पढ़ने के बाद मुझे समझ आया की सही मायने में स्वराज तो अभी आया ही नहीं...)
देश में स्वराज स्थापित करने में सोशल मीडिया एक महत्वपूरण भूमिका अदा कर सकता है बल्कि कर रहा है .. स्वराज की मूल अवधारणा है किसी भी निर्णय पे पहुँचने से पूर्व अधिक से अधिक लोगो की आम राय लेना.. और ये काम सोशल मीडिया बखूबी कर रहा है समय के साथ जैसे जैसे सोशल मीडिया की पहुँच बढ़ेगी और "स्वराज" जो की सही मायनो में लोकतंत्र है स्थापित होता जायेगा .इसलिए मेरी राय में सरकार को और सामाजिक संगठनों को प्रयास करना चाहिए की अधिक से अधिक लोगो तक इन्टरनेट की पहुँच हो और वो इनका इस्तेमाल सीखे ताकि लोकतंत्र को मजबूत करने में वो अपना सक्रीय योगदान दे सकें.

इस सकारात्मक टिपण्णी के बाद मैं इन्टरनेट/सोशल मीडिया  के नकारात्मक पहलु पे भी कहना चाहूँगा क्यूँ के जैसा मैंने कहाँ ये लोहार के हथोडे की तरह है तो इसका जो सकारात्मक पहलु है उसको मैंने नाली साफ करने वाली खुरपी कहा कहा है ...पर इसका नकारात्मक पहलु भी है यानी ये लोहार का हथोड़ा तलवार भी बना सकता है जिससे अराजकता फ़ैल सकती है ... लेकिन हमें इससे भयभीत हो के हथोडे पे ही प्रतिबन्ध लगाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए. इसके और भी उपाय किये जा सकते हैं. पिछले दिनों मैं अपने एक हैकर मित्र से इस सम्बन्ध में चर्चा कर रहा था तो उसने इन्टरनेट के दुरुपयोग को रोकने के लिए एक उपाय सुझाया " सोशल मीडिया पुलिस " जिस तरह असल दुनिया में असामाजिक तत्वों पे पोलिस नजर रखती है वैसे ही ये काम सोशल मीडिया में भी संभव है जरुरत है कुछ सोशल मीडिया के पोलिस ठाणे बनाने ली जो इन्टरनेट पे गस्त करेंगे और जो कोई भी असामाजिक बात (जो संविधान सम्मत न हो न की सरकार सन्मत ) करता पाया जायेगा उसे IP ADDRESS OR MAC (Media Access Control) address को ट्रैक करके उसके कम्पूटर या मोबाइल को जब्त करने और उस पर स्थानीय पोलिस के सहयोग से कार्यवाही की जा सकती है . हो सकता है ये थोडा खर्चीला हो मुश्किल काम हो लेकिन इससे दुरुपयोग करने वालो में भय तो व्याप्त होगा ही.


कुल मिलाकर के यही कहा जा सकता है की सोशल मीडिया या वैकल्पिक मीडिया मुख्यधारा की मीडिया पे दबाव बनाके लोकतंत्र को मजबूत करने का एक शसक्त माध्यम है इसमें कोई शक नहीं है .

सिमित समझ का लेखक

AKHIL_RAJ



Friday, October 11, 2013

श्री नाथजी ...!!

Shree nathji...!!

17 April 2012 at 11:48 AM
Ganesh g aaya

गणेश आया रिद्धि सिद्धि ल्याया

भरया भण्डारा रहसी ओ राम,-

मिल्या सन्त उपदेशी, गुरु मोंयले री बाताँ कहसी

ओ राम म्हान झीणी झीणी बाता कहसी ॥टेर॥

हल्दी का रंग पीला होसी, केशर कद बण ज्यासी ॥1॥

कोई खरीद काँसी, पीतल, सन्त शब्द लिख लेसी ॥2॥

खार समद बीच अमृत भेरी, सन्त घड़ो भर लेसी ॥3॥

खीर खाण्ड का अमृत भोजन, सन्त नीवाला लेसी ॥4॥

कागा कँ गल पैप माला, हँसलो कद बण ज्यासी ॥5॥

ऊँचे टीले धजा फरुके, चौड़े तकिया रहसी ॥6॥

साध-सन्त रल भेला बैठ, नुगरा न्यारा रहसी ॥7॥

शरण मछेन्दर जती गोरख बोल्या, टेक भेष की रहसी ॥8॥


Ghat rakho….

घट राखो अटल सुरती ने, दरसन कर निज भगवान का ॥टेर॥

सतगुरु धोरे गया संतसंग में, गुरांजी भे दिया हरि रंग में ।

शबद बाण मर्या मेरे तन में, सैल लग्या ज्यूँ स्यार का ॥

मेरा मन चेत्या भक्ति में ॥1॥

जबसे शबद सुण्या सतगरु का, खुल गया खिड़क मेरे काया मंदिर का ।

मात पिता दरस्या नहीं घरका, दूत लेजा जमराज का ।

तेरा कोई न संगी जगती में ॥2॥

नैन नासिका ध्यान संजोले, रमता राम निजर भरजोले ।

बिन बतलाया तेरे घट में बोले, बेरो ले भीतर बाहर का ॥

अब क्यूँ भटके भूली में ॥3॥

अमृतनाथजी रम गया सुन्न में, मुझको दीदार दिखा दिया छत में ।

मद्यो मगन हो जा भजन में, रुप देख निराकार का ।

अब क्या सांसा मुक्ति में ॥4॥

Bhajan mat bhulo

भजन मत भूलो एक घड़ी, शबद मत भूलो एक घड़ी ।

काया पूतलो पल में जासी, सिर पर मौत खड़ी ॥टेर॥

इण काया में लाल अमोलक, आगे करम कड़ी ।

भँवर जाल में सब जीव सून्या, बिरला ने जाण पड़ी ॥1॥

इण काया में दस दरवाजा, ऊपर खिड़क जड़ी ।

गुरु गम कूँची से खोलो किवाड़ी, अधर धार जड़ी ॥2॥

सत की राड़ लड़ै सतसूरा, चढ्या बंक घाटी ।

गगन मण्डल में भर्या भंडारा, तन का पाप कटी ॥3॥

अखै नाम नै तोलण लाग्या, तोल्या घड़ी घड़ी ।

अमृतनाथजी अमर घर पुग्या, सत की राड़ लड़ी ॥4॥

Minakh jamaro banda
मिनख जमारो बंदा ऐलो मत खोवै रे,

सुखरत करले जमारा नै

पापी के मुख से राम कोनी निकसै,

केशर घुल रही गारा में ॥टेर॥

भैस पद्मणी ने गैणों तो पहरायो, कांई जाणै पहरण हारा ने ।

पहर कौनी जाणै बा तो चाल कोनी जाणै रे, उमर गमादी गोबर गारा में ॥1॥

सोने के थाल में सूरी ने परोसी, कांई जाणै जीमन हारा ने ।

जीम कोनी जाणै बा तो जूठ कोनी जाणै रे, हुरड़ हुरड़ करती जमारा ने ॥2॥

काँच के महल में कुत्ती ने सुवाई, कांई जाणै सोवण हारा ने ।

सोय कोनी जाणै बा तो ओढ़ कोनी जाणै रे, घुस घुस मरगी गलियारा में ॥3॥

मानक मोती मुर्खा ने दीन्या, दलबा तो बैट गया सारा नै ।

हीरा की पारख जोहरी जाणै, कांई बेरो मुरख गँवारा नै ॥4॥

अमृतनाथजी अमर हो गया जोगी, जार गया काँचे पारा ने ।

भूरा भजन हरिराम का करले, हर मिलसी दशवां द्वारा में ॥5॥

Sunna ghar sahar ghar basti
शुन्न घर शहर, शहर घर बस्ती, कुण सैवे कुण जागै है ।

साध हमारे हम साधन कै, तन सोवै ब्रह्म जागै है ॥टेर॥

भंवर गुफा मे तपसी तापै, तपसी तपस्या करता है।

अस्त्र, वस्त्र कछु नही रखता नाग निर्भय रहता है ॥1॥

एक अप्सरा आगै ऊबी, दूजी सुरमो सारै है ।

तीजी सुषमण सेज बिछावै, परण्या नहीं कँवारा है ॥2॥

एक पिलंग पर दोय नर सुत्या, कुण सौवे कुण जागै है ।

च्यारुँ पाया दिवला जोया, चोर किस विध लागै है ॥3॥

जल बिच कमल, कमल बिच कलिया, भंवर वासना लेता है ।

पांचू चेला फिरै अकेला, ए अलख अलख जोगी करता है ॥4॥

जीवत जोगी माया भोगी, मूवा पत्थर नर माणी रै ।

खोज्या खबर करो घट भीतर, जोगाराम की बाणी रै ॥5॥

परण्या पहली पुत्र जलमिया, मातपिता मन भाया है ।

शरण मच्छेन्दर जति गोरक्ष बोल्या, एक अखण्डी नै ध्याया
है ॥6॥

Malik k darbar
म्हारे मालिक के दरबार, आवणा जतीक और नर सती

नुगरा मिलज्यो रे मती ॥टेर॥

ज्ञान सरोदै सुरत पपैया, माखन खाणा मती ।

जै खाणा तो शायर खाणा, जाँ में निपजै रति रै ॥1॥

पहली तो या गुप्त होवती, अब हो लागी प्रगटी ।

राजा हरिशचंद्र तो सिद्ध कर निकल्या, लारे तारा सती रै ॥2॥

कै योजन में संत बसत है, कै योजन में जती ।

नौ योजन में संत बसत है, दस योजन में जती रै ॥3॥

दत्तात्रेय ने गोरख मिल गया, मिल गया दोनों जती ।

राजा दशरथ का छोटा बालक, गाबै लक्षमण जती रै ॥4॥


Har  bhaj har bhaj
हर भज हर भज हीरा परख ले, समझ पकड़ नर मजबूती ।

अष्ट कमल पर खेलो मेरे दाता, और बारता सब झूठी ॥टेर॥

इन्द्र घटा ज्यूँ म्हारा सतगुरु आया, आँवत ल्याया रंग बूँटी ।

त्रिवेणी के रंग महल में साधा लाला हद लूटी ॥1॥

इण काया में पाँच चोर है, जिनकी पकड़ो सिर चोटी ।

पाँचवाँ ने मार पच्चीसाँ ने बसकर, जद जाणा तेरी बुध मोटी ॥2॥

सत सुमरण का सैल बणाले, ढ़ाल बणाले धीरज की ।

काम, क्रोध ने मार हटा दे, जद जाणा थारी रजपूती ॥3॥

झणमण झणमण बाजा बाजै, झिलमिल झिलमिल वहाँ ज्योति ।

ओंकार के रणोकार में हँसला चुग गया निज मोती ॥4॥

पक्की घड़ी का तोल बणाले, काण ने राखो एक रती ।

शरण मच्छेन्द्र जति गोरक्ष बोल्या, अलख लख्या सो खरा जती ॥5॥

Sadha kari ladai
साधु लडे रे शबद के ओटै, तन पर चोट कोनी आयी मेरा भाई रे

साधा करी है लड़ाई....ओजी म्हारा गुरु ओजी...॥टेर॥

ओजी गुरुजी, पाँच पच्चीस चल्या पाखारिया आतम करी है चढ़ाई ।

आतम राज करे काया मे, ऐसी ऐसी अदल जमाई ॥1॥

ओजी गुरुजी, सात शबद का मँड्या है मोरचा, गढ़ पर नाल झुकाई ।

ग्यान का गोला लग्या घट भीतर, भरमाँ की बुरज उड़ाई ॥2॥

ओजी गुरुजी, ज्ञान का तेगा लिया है हाथ मे, करमा की कतल बनाई ।

कतल कराइ भरमगढ़ भेल्या, फिर रही अलख दुहाई ॥3॥

ओजी गुरुजी, नाथ गुलाब मिल्या गुरु पूरा, लाला लगन लखाई ।

भानी नाथ शरण सतगुरु की, खरी नौकरी पाई ॥4॥

Bungla dekhi teri ajab bahar
बुंगला देखी थारी अजब बहार, जां में निराकार दीदार ॥टेक॥

काया बुंगला मँ पातर नाचै, देख रहयो संसार ।

किताक पगड़ी ले चल्या, कई गया जमारो हार ॥1॥

काया बुंगला में बीणजी बिणजै, बिणजै जिनसे अपार ।

हरिजन हो सो हीरा बिणजै, पात्थर या संसार ॥2॥

काया बंगला में दौड़ा दौड़ै, दौड़ रहया दिनरात ।

पांच पच्चीस मिल्या पाखरिया, लूट लिया बाजार ॥3॥

काया बुंगला में तपसी तापै, अधर सिंहासन ढाल ।

हाड़ मांस से न्यारो खेलै, खेलै खेल अपार ॥4॥

काया बुंगला में चोपड़ मांडी, खेलै खेलण हार ।

अबकै बाजी मंडी चौवठै, जीत चलो चाहे हार ॥5॥

नाथ गुलाम मिल्या गुरु पूरा, जद पाया दीदार ।

भानी नाथ शरण सतगुरु कै, हर भज उतरो पार ॥6॥

Ghat mai base bhagwan

घट में बसे रे भगवान, मंदिर में काँई ढूंढ़ती फिरे म्हारी सुरता ॥टेर॥

मुरती कोर मंदिर में मेली, बा सुख से नहीं बोलै।

दरवाजे दरबान खड्या है, बिना हुकम नहीं खोलै ॥1॥

गगन मण्डल से गंगा उतरी, पाँचू कपड़ा धोले ।

बिण साबण तेरा मैल कटेगा, हरभज निर्मल होले ॥2॥

सौदागर से सौदा करले, जचता मोल करालै ।

जे तेरे मन में फर्क आवेतो, घाल तराजू में तोले ॥3॥

नाथ गुलाब मिल्या गुरु पूरा, दिल का परदा खोले ।

भानीनाथ शरण सतगुरु की, राई कै पर्वत ओलै ॥4॥

Bhjan bina  koi na jage rey
भजन बिना कोई न जागै रे, लगन बिना कोई न जागै रै।

तेरा जनम जनम का पाप करेड़ा, रंग किस बिध लागे रै॥टेर॥

संता की संगत करी कोनी भँवरा, भरम कैयाँ भागै रै।

राम नाम की सार कोनी जाणै, बाताँ मे आगै रै ॥1॥

या संसार काल वाली गीन्डी,टोरा लागे रै।

गुरु गम चोट सही कोनी जावै, पगाँ ने लागे रै॥2॥

सत सुमिरण का सैल बणाले, संता सागे रै।

नार सुषमणा राड़ लडै जद, जमड़ा भागै रै॥3॥

नाथ गुलाब सत संगत करले, संता सागे रै।

भानीनाथ अरज कर गावै, सतगुराँजी के आगै रै

Hindolo
हिण्डो तो घलादे सतगुरु म्हारा बाग मे जी।

सतगुरु म्हारा, हिण्डे-हिण्डे सुरता नार ॥टेर॥

काया तो नगरिये मे सतगुरु म्हारा आमली जी।

सतगुरु म्हारा छायी छायी च्यारुँ मेर ॥1॥

अगर-चंदन को सतगुरु म्हारा पालणो जी।

सतगुरु म्हारा रेशम डोर घलाय ॥2॥

पाँच सखी मिल पाणीड़े न निसरी जी।

सतगुरु मेरा पाँचू ही एक उणियार ॥3॥

नाथ गुलाब से सतगुरु म्हारा विनती जी।

सतगुरु मेरा गावै-गावै भानीनाथ ॥4॥

Nagri k logo
नगरी के लोगो, हाँ भलाँ बस्ती के लोगो।

मेरी तो है जात जुलाहा, जीव का जतन करावा॥

हाँ के दुविधा परे सरकज्याँ ये, दुनिया भरम धरैगी।

कोई मेरा क्या करैगा रे, साई तेरा नाम रटूँगा॥टेर॥

आणा नाचै, ताणा नाचै, नाचै सूत पुराणा।

बाहर खड़ी तेरी नाचै जुलाही, अन्दर कोई न आणा॥1॥

हस्ती चढ़ कर ताणा तणिया, ऊँट चढ़या निर्वाणा।

घुढ़लै चढ़कर बणवा लाग्या, वीर छावणी छावां॥2॥

उड़द मंग मत खा ये जुलाही, तेरा लड़का होगा काला।

एक दमड़ी का चावल मंगाले, सदा संत मतवाला॥3॥

माता अपनी पुत्री नै खा गई, बेटे ने खा गयो बाप।

कहत कबीर सुणो भाई साधो, रतियन लाग्यो पाप॥4॥

Nipaje nipaje

निपजै निपजै रे बीरा-म्हारे रे साधा के।

ऐ उनाल्यों, स्यालो निपजै रे॥टेर॥

मनवो हाली चल्यो खेत मे, काँधे ज्ञान कुवाड़ी।

भरे खेत में दो दो काटे, पाप कुबद की डाली॥1॥

मनवो हाली, मनसा हालन, छाक सुवारी ल्याव।

पहली तो या साध जीमाव, पाछे काम करावै॥2॥

चन्दन चौकी चढ़यो डूचँव, खेत चिडकलि खावे।

ज्ञान का गोफिल लिया है हाथ में, कुबद चिडकलि उड़ावे॥3॥

पचलँग पाल मेढ कर मनकी, पाँच बलदियां जोती।

ओम् सोह का पलटा देकर, कुरक कुरक बरसाव॥4॥

धोला सा दोय बैल हमारा, रास पुरानी सेती।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, या साधा की खेती॥5॥

Chadar jhini
चादर झीणी राम झीणी, या तो सदा राम रस भीणी॥टेर॥

अष्ट कमल पर चरखो चाले, पाँच तंत की पूणी।

नौ दस मास बणताँ लाग्या, सतगुरु ने बण दीनी॥1॥

जद मेरी चादर बण कर आई, रंग रेजा ने दीनी।

ऐसा रंग रंगा रंगरेजा, लाली लालन कीनी॥2॥

मोह माया को मैल निकाल्या, गहरी निरमल कीनी।

प्रेम प्रीत को रंगलगाकर, सतगुरुवाँ रंग दीनी॥3॥

ध्रुव प्रहलाद सुदामा ने ओढ़ी, सुखदेव ने निर्मल कीनी।

दास कबीर ने ऐसी ओढ़ी, ज्यू की ज्यू धर दीनी॥4॥

Ter gale ko haar

तेरे गले को हार जंजीरो रे, सतगुरु सुलझावेगा

तेरी काया नगर में हीरो रै, हेरे से पावेगा॥टेर॥

कारीगर का पिंजरा रे, तने घड़ल्यायो करतार।

शायर करसी सोधणा रै, मुरख करे रे मरोड़,।

रोष मन माँयले में ल्यावेगा॥1॥

मन लोभी, मन लालची रे भाई मन चंचल मन चोर।

मन के मत में ना चले रे, पलक पलक मन और,।

जीव के जाल घलावेगा॥2॥

ऐसा नान्हा चालिऐ रे भाई, जैसी नान्ही दूब।

और घास जल जा जायसी रै, दूब रहेगी खूब,।

फेर सावण कद आवेगा ॥3॥

साँई के दरबार में रे भाई, लाम्बी बढ़ी है खजूर।

चढे तो मेवा चाखले रै, पड़े तो चकना चूर,।

फेर उठण कद पावेगा॥4॥

जैसी शीशी काँच की र भाई, वैसी नर की देह।

जतन करता जायसी रै, हर भज लावा लेय,।

फेर मौसर कद आवेगा॥5॥

चंदा गुड़ी उडावता रे भाई लाम्बी देता डोर।

झोलो लाग्यो प्रेम को रै, कित गुड़िया कित डोर,।

फेर कुण पतंग उड़ावेगा॥6॥

ऐसी कथना कुण कथी रे भाई, जैसी कथी कबीर।

जलिया नाहीं, गडिया नाहीं, अमर भयो है शरिर।

पैप का फूल बरसाबेगा॥7॥

Pinjre wali maina
पिंजरै वाली मैना, भजो ना सिया राम राम।

भजो ना सिया राम राम, रटोना राधे श्याम श्याम॥टेर॥

पाँच तत्व का बण्या पिंजरा, जिसमें रहती मैना।

जाया नाम जनम का रहसी, किस विध होसी रहना॥1॥

रंग रंगीला बण्या पिंजरा, जिसमें रहती मैना।

खुल जाया पिंजरा, उड़ जाय मैना, किस विध होसी रहना॥2॥

भजन करो ये प्यारी मैना, नहीं काग बण ज्याना।

जहर पियाला कव्वौ पिवै, अमृत पिवै मैना॥3॥

दास कबीर बजावै वाला, गाय सुनावै मैना।

भगवत की गत भगवत जाणै, नहीं किसीने जाणा॥4॥
Bhai rey mat dijyo mawadli  ne

भाई रे मत दीजो मावड़ली ने दोष, कर्मा की रेखा न्यारी॥टेर॥

भाई रे एक बेलड़ के तूम्बा चार, चारा री करणी न्यारी न्यारी।

भाई रे पहलो गुराँसा रे हाथ, दूजोडो मृदंग बाजणो।

भाई रे तीजो तम्बुरा वाली बीण, चोथोडो भीक्षा मांगणो॥1॥

भाई रे एक गऊ के बछड़ा चार, चारा री करणी न्यारी न्यारी।

भाई रे पहलो सुरजमल रो सांड, दूजोडो शिव को नान्दियो।

भाई रे तीजो यो धाणी वालो बैल, चोथोड़ो बालद लादनो॥2॥

भाई रे एक माटी का बर्तन चार, चारा री करणी न्यारी न्यारी।

भाई रे पहले में दहिड़ो जमावे, दूजो तो शिव के जल चढ़े।

भाई रे तीजो पणिहार्या रे शीश, चोथोड़ो शमशान जायसी॥3॥

भाई रे एक मायड़ के पुत्र चार, चारा री करणी न्यारी न्यारी।

भाई रे पहलो राजाजी री पोल, दूजोड़ो हीरा पारखी।

भाई रे तीजो यो हाट बजार, चोथोड़ो भीक्षा मांगसी॥4॥

भाई रे कह गया कबीरो धर्मीदास, कर्मारा भारा मेटयो॥5॥

Lage chhavi pyari
मनमोहन थारी लागै छवि प्यारी, बिरत में बाँसुरी बाजी।

बासुरी बाजी बिरज में, मुरलिया बाजी, मनमोहन थारी लागै॥टेर॥

मीरा महलाँ ऊतरी रै, छाया तिलक लगाय।

बतलाई बोलै नहीं रै, राणो रहो रिसाय॥1॥

राणो मीरा पर कोपियो रै, सूँत लई तलवार।

मार्याँ पिराछट लागसी रै, पीवर दयो पहुँचाय॥2॥

मीरा ऊबी गोखड़ाँ रै, ऊँटाँ कसियो भार।

दाँवो छोड्यो मेडतो रै, सीधी पुष्कर जाय॥3॥

जहर पियालो राणो भेजियो रै, दयो मीरा नै जाय।

कर चरणामृत पी गई रै, थे जाणो रघुनाथ॥4॥

सर्प पिटारो राणो भेजियो रै, दयो मीरा नै जाय।

खोल पिटारो मीरा पहरियो रै, बण गयो नौसर हार॥5॥

मीरा हर की लाड़ली रै, राणो बन को ठुँठ।

समझायो समझ्यो नहीं रै, लेज्याती बैकुण्ठ॥6॥


Mandir jati mira ne
मन्दिर जाती मीरां नै साँवरियो मिल गयो रै।

गिरधर जादू कर गयो रै॥टेर॥

राणो मीरां नै सनझावै, के होयो थारै क्यूँना बतावै।

फीका पड़ गया नैण-फरक बोली मँ पड गयो रै॥1॥

आज मिल्या न्हानै गिरधारी, मन की बातां पूछी सारी।

नैणा कर गयो च्यार-क दिल कै तालो जड़ गयो रै॥2॥

राणो मीरां नै समझावै, बडा घराँ की लाज गमावै।

कुल कै लागै दाग, पति जीवतड़ों ही मर गयो रै॥3॥

श्याम सुन्दर है पति हमारा, सारे जग का बै रखवारा।

कहता राधेश्याम मीरां नै मोहन मिल गयो रै॥4॥

Mewadi rana
मेवाड़ी राणा, भजनाँ सँ लागै मीरा मीठी।

उदयपुर राणा, भजनाँ सँ लागै मीरा मीठी॥टेर॥

थारो तो राम म्हानै बतावो, नहीं तो फकीरी थारी झूठी॥1॥

म्हारो तो राम राणाजी घटघट बोलै, थारै हिये की कियाँ फूटी॥2॥

सास नणद दोराणी, जिठाणी, जलबल भई अंगीठी॥3॥

थे तो साँवरिया म्हारै सिर का सेवरा, म्हें थारै हाथकी अंगूठी॥4॥

सँकडी गली मँ म्हानै गिरधर मिलियो, किस बिध फिरुँ मैं अपूठी॥5॥

बाई मीरा के प्रभु गिरधर नागर, चढ़ गयो रंग मजीठी॥6॥

Ek lakdi tu ban lakdi
एक लड़की तू बन लकड़ी अब देख तमाशा लकड़ी क॥टेर॥

गर्भवास सै बाहर निकला, झूलै पालना लकड़ी का।

पांच बरस की उमर हुई तब, हाथ खिलौना लकड़ी का॥1॥

बीस बरस की उमर भई, तैयारी हुई व्याह करने की।

बाध सेवरा घोड़ी चढ़ गया, तोरन मारा लकड़ी का॥2॥

चालीस बरस की उमर हुई, फिकर लगी है बुढापै की।

साठ बरस की उमर हुई तब, हाथ सहारा लकड़ी का॥3॥

अस्सी बरस की उमर हुई, तैयारी हुई अब चलनै की।

चार जनै मिल तुझे उठावैं, विमान बनाया लकड़ी का॥4॥

गंगा तट पर जाकर रखा, स्नान कराया गंगा का।

नीचै लकड़ी उपर लकड़ी, चित्ता बनाव लकड़ी का॥5॥

आधम आध शरीर जला तब, ठोकर मारा लकड़ी का।

होरी जैसे फूंक दिया फिर, टुकडा डाला लकड़ी का॥6॥

कहत कबीर सुणो भाई साधो, खेला बना सब लकड़ी का।

ढोलक लकड़ी बाजा लकड़ी, सितारा बना है लकड़ी का॥7॥

Main tere rang rachi

मैं तेरै रंग ओ साँवरा, मैं तेरै रंग राची॥टेर॥

सवा रंग चोला पहन सखी मैं, झुरमुट खेलण जाती।

झुरमुट खेलती नै मिल गयो सांवरो, मैं घाल मिली गत बाथी॥1॥

ओर सखी मद पी पी माती, मैं मद पिया बिन माती।

मैं मद पियो एक प्रेम भटी को, मस्त रही दिन राती॥2॥

और रा पिव परदेश बसत है, लिख लिख भेजै पाती।

मेरा पिया मेरे घट मे बसत है, बात करुं दिन राती॥3॥

सुरत निरत को दिवलो संजोयो, मनसा री कर लईबाती।

प्रेम घाणी को तेल संजायो, जग्यो दिन राती॥4॥

जाउंना पिवर्यि रहुँ ना सारियै, सतगुरु शब्द सुनाती।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरिचरण मँ चित लाती॥5॥

Mhara bira rey
सतगुरु साहिब बंदा एक है जी

भोली साधुड़ाँ से किसोडी भिराँत म्हार बीरा रै

साध रै पियालो रल भेला पीवजी॥टेर॥

धोबीड़ा सा धोवै गुरु का कपड़ा रै, कोई तन मन साबुन ल्याय।

तन रै सिला मन साबणा रै, कोई मैला मैला धुप धुप ज्याय॥1॥

काया रे नगरियै में आमली रै, जाँ पर कोयलड़ी तो करै रे किलोल।

कोयलड्याँ रा शबद सुहावना रै, बै तो उड़ उड़ लागै गुराँ के पांव॥2॥

काया रे नगरिये में हाटड़ी रै,जाँ पर विणज करै है साहुकार।

कई रे करोड़ी धज हो चल्या रै, कई गय है जमारो हार॥3॥

सीप रे समन्दरिये मे निपजै रै, कोई मोतीड़ा तो निपजै सीपां माँय।

बून्द रे पड़ै रे हर के नाम की रै, कोई लखिया बिरला सा साध॥4॥

सतगुरु शबद उच्चारिया रै, कोई रटिया सांस म सांस।

देव रे डूंगरपुरी बोलिया रै, ज्यारो सत अमरापुर बास॥5॥

Samajh man mayla rey
समझ मन माँयलारै, बीरा मेरा मैली चादर धोय।

बिन धोयाँ दुख ना मिटै रै, बीरा मेरा तिरणा किस बिध होय॥टेर॥

देवी सुमराँ शारदा रै, बीरा मेरा हिरदै उजाला होय।

गुरुवाँ री गम गैला मिल्या रे, बीरा मेरा आदु अस्तल जोय॥1॥

दाता चिणाई बावड़ी रै, ज्यामें नीर गगजल होय।

कई कई हरिजन न्हा चल्या रै, कई गया है जमारो खोय॥2॥

रोईड़ी रंग फूटरो रै, जाराँ फूल अजब रंग होय।

ऊबो मिखमी भोम मे रै, जांकी कलियन विणजै कोई॥3॥

चंदन रो रंग सांवलो रै, जाँका मरम न जाने कोय।

काट्या कंचन निपजै रै, ज्यामे महक सुगन्धी होय॥4॥

तन का बनाले कापडा रै, सुरता की साबुन होय।

सुरत शीला पर देया फटकाया रै, सतगुरु देसी धोय॥5॥

लिखमा भिखमी भौम में रै, ज्याँरो गाँव गया गम होय।

तीजी चौकी लांधजा रै, चौथी में निर्भय होय॥6॥

Kun sang aaya kun sang jaga
दिल अपणै में सोचले समझ , दुख पावै जान।

मेरी नाथ बिना, रघुनाथ बिना॥टेर॥

आई जवानी भया दीवाना, बल तोले हस्ती जितना।

यम का दूत पकड़ ले जासी, जोर न चाले तिल जितना॥1॥

भाई बन्धु कुटुम्ब कबीला, झूठी माया घर अपना।

कई बार पुत्र पिता घर जनमें, कई बार पुत्र पिता अपना॥2॥

कुण संग आया, कुण संग जासी, सब जुग जासी साथ बिना।

हंसला बटाऊ तेरा यहीं रह जासी, खोड़ पड़ी रवे सांस बिना॥3॥

लखै सरीसा, लख घर छोड्या, हीरा मोती और रतना।

अपनी करणी, पार उतरणी, भजन बणायो है कसाई सजना॥4॥

Balihari balihari
बलिहारी बलिहारी म्हारे सतगुरुवां ने बलिहारी।

बन्धन काट किया जीव मुक्ता, और सब विपत बिड़ारी॥टेर॥

वाणी सुनत परस सुख उपज्या, दुर्मति गयी हमारी।

करम-भरम का संशय मेट्या, दिया कपाट उधारी॥1॥

माया, ब्रह्म भेद समझाया, सोंह लिया विचारी।

पूरण ब्रह्म कहे उर अंदर, काहे से देत विड़ारी॥2॥

मौं पर दया करो मेरा सतगुरु, अबके लिया उबारी।

भव सागर से डूबत तार्या, ऐसा पर उपकारी॥3॥

गुरु दादू के चरण कमल पर, रखू शीश उतारी।

और क्या ले आगे रखू, सादर भेट तिहारी॥4॥

Nindra beh dyun koileto
निन्द्रा बेच दू कोई ले तो, रामो राम रटे तो तेरो मायाजाल कटेगी॥टेर॥

भाव राख सतसंग में जावो, चित में राखो चेतो।

हाथ जोड़ चरणा में लिपटो, जे कोई संत मिले तो॥1॥

पाई की मण पाँच बेच दू, जे कोई ग्राहक हो तो।

पाँचा में से चार छोड़ दू, दाम रोकड़ी दे तो॥2॥

बैठ सभा में मिथ्या बोले, निन्द्रा करै पराई।

वो घर हमने तुम्हें बताया, जावो बिना बुलाई॥3॥

के तो जावो राजद्वारे, के रसिया रस भोगी।

म्हारो पीछो छोड़ बावरी, म्हे हाँ रमता जोगी॥4॥

ऊँचा मंदिर देख जायो, जहाँ मणि चवँर दुलाबे।

म्हारे संग क्या लेगी बावरी, पत्थर से दुख पावे॥5॥

कहे भरतरी सुण हे निन्द्रा, यहाँ न तेरा बासा।

म्हें तो रहता गुरु भरोसे, राम मिलण की आशा॥6॥

Kayar sake na
कायर सके ना झेल, फकीरी अलबेला को खेल॥टेर॥

ज्यूँ रण माँय लडे नर सूरा, अणियाँ झुक रहना सेल।

गोली नाल जुजरबा चालै, सन्मुख लेवै झेल॥1॥

सती पति संग नीसरी, अपने पिया के गैल।

सुरत लगी अपने साहिब से, अग्नि काया बिच मेल॥2॥

अलल पक्षी ज्यूँ उलटा चाले, बांस भरत नट खेल।

मेरु इक्कीस छेद गढ़ बंका, चढ़गी अगम के महल॥3॥

दो और एक रवे नहीं दूजा, आप आप को खेल।

कहे सामर्थ कोई असल पिछाणै, लेवै गरीबी झेल॥4॥

Bhajan karo mat daro kisi se
करो भजन मत डरो किसी से, ईश्वर के घर होगा मान

इसी भजन से, भजन से हिरदै मँ उपजैगा ज्ञान॥टेर॥

भजन कियो प्रह्लाद भक्त नै, बरे बरे कारज सार्यो।

हिरणाकुश नै, असुर नै, राम नाम लाग्या खारा॥

हिरणाकुश यूँ कही पुत्र सँ बचन नहीं मान्या मेरा।

तोय अभी मारता, बता सच राम नाम है कहाँ तेरा॥1॥

शेर

राम तो में, राम मो में, राम ही हाजर खड्या।

पिता तुझे दीखै नहीं, तेरी फरक बुद्धि में पड्या॥

कष्ट देख्यो भक्त में तब फाड़ खम्भा निसरिया।

रुप थो विकराल सिंह को, असुर ऊपर नख धर्या॥

सहाय करी प्रह्लाद भक्त की, हिरणाकुश का लिया प्राण।

भजन कियो ध्रुव बालापन में, बन में बैठयो ध्यान लगाय।

अन्न जल त्याग्या, त्याग दिया पान पुष्प फल कछु य न खाय।

कठिन तपस्या देख ध्रुव की, इन्द्र मन में गयो घबराय।

परियां भेजी, भेज दयी आयो ध्रुव को सत्य डिगाय॥2॥

शेर

हुक्म पाकर इन्द्र को बा परी ध्रुव पे आ गई।

फैल फैल्या भोत सा, बा तुरन्त मुर्छा खा गई।

माता तेरी हूँसही उठ बोल मुख से यूं कही।

ध्रुव ध्यान से चूक्यो नहीं, झक मारती पाछी गई।

उसी वक्त प्रभु आकर ध्रुव को, बैकुंठन का दिया वरदान।

भजन कियो गजराज जिन्हों की, डूबत महिमा कहूँ सारी।

अर्ध रैन की टेर सुन, जाग उठे प्रभु बनवारी॥

लक्ष्मी बोली हे महाराजा, रैन बड़ी है अन्धियारी।

ईश्वर कहता भक्त पर, भीर पड़ी है अति भारी॥3॥

शेर

गरुड़ पे असवार हो के, पवन वेग सिधाइया।

गरुड़ हार्यो, तब बिसार्यो नाद पैदल धाइया॥

अगन कर प्रभु चक्र से, तिनहू को काट गिराइया।

ग्राह मारन, गज उबारन, नाथ भक्त बचाइया॥

उसी वक्त वैकुण्ठ पठा दिये, गज और ग्राह की भक्ति पिछान।

भजन कियो द्रोपदी जिन्होंने दुष्ट दुःशासन आ घेरी।

बा करुणा कीनी बचावो, आज नाथ लज्जा मेरी।

रटूँ आपको नाम प्रेम से, हूँ चरणन की चित्त चेरी।

मोहे दासी जान के पधारो, नाथ करो मतना देरी॥4॥

शेर

नगन होती द्रोपदी बा भजन से छिन में तरी।

चीर को नहीं अन्त आयो, दुष्ट हार्यो उस घड़ी

भजन ही है सार बन्दे, धार मन में तू हरी।

भजन ही के काज देखो, लाज द्रुपदी की रही

श्री लाल गोरीदत्त गाता, भजन किए से हो कल्याण॥

Oji mhara natwar nagriya
औरे म्हारा नटवर नागरिया भगता कै क्यू नहीं आयो रै ॥टेर॥

धनो भगत के भगत पूरबलो जिनको खेत निपजायो रै।

बीज लेर साधां नै बाँट्यो बिना बीज निपजायो रै॥1॥

नामदेव थारो नानो लागै ज्यांको छपरो छायो रै।

मार मण्डासो छाबण लाग्यो लिछमी जूण खिंचायो रै॥2॥

सेन भगत थारो सुसरो लागै ज्यांको कारज सार्यो रै।

बगल रछानी नाई बणगो, नृप को शीश सवार्यो रै॥3॥

परसो खाती थारो पूरखो लागै ज्यांको पैड़ो पूठ्यो रै।

बिना बुलायै आपै आयो रात्यूं लकड़ो कूट्यो रै॥4॥

कबीरा काँई थारो काको लागै ज्यांघर बालम ल्यायो रै।

खांड खोपरा गिरी छुहारा आप लदावन आयो रै॥5॥

भिलणी काई थारी भुवा लागै जिणरो झूठो खायो रै।

ऊंच-नीच की कान न मानै रुच रुच भोग लगायो रै॥6॥

करमा कांई थारी काकी लागै जिणरो खीचड खायो रै।

धाबलियै को पड़दो दीन्यो रुच रुच भोग लगायो रै॥7॥

मीरा कांई थारी मासी लागै जिणरो विष तूं जार्यो रै।

राणो विषको प्यालो भेज्यो विष इमरत कर डार्यो रै॥8॥

Rame ras pyasa
कोई पीवो राम रस प्यासा, कोई पीवो राम रस प्यासा।

गगन मण्डल में अली झरत है, उनमुन के घर बासा॥टेर॥

शीश उतार धरै गुरु आगे, करै न तन की आशा।

एसा मँहगा अमी बीकर है, छः ऋतु बारह मासा॥1॥

मोल करे सो छीके दूर से, तोलत छूटे बासा।

जो पीवे सो जुग जुग जीवे, कब हूँ न होय बिनासा॥2॥

एंही रस काज भये नृप योगी, छोडया भोग बिलासा।

सहज सिंहासन बैठे रहता, भस्ती रमाते उदासा॥3॥

गोरखनाथ, भरथरी पिया, सो ही कबीर अम्यासा।

गुरु दादू परताप कछुयक पाया सुन्दर दासा॥4॥

Sada jeewan such se jeena
सादा जीवन सुख से जीना, अधिक इतराना ना चाहिए।

भजन सार है इस दुनियाँ में, कभी बिसरना ना चाहिये॥टेर॥

मन में भेदभाव नहीं रखना, कौन पराया कुण अपना।

ईश्वर से नाता सच्चा है, और सभी झूठा सपना॥

गर्व गुमान कभी ना करना, गर्व रहै ना गले बिना।

कौन यहाँ पर रहा सदा सें, कौन रहेगा सदा बना॥

सभी भूमि गोपाल लाल की, व्यर्थ झगड़ना ना चाहिये॥1॥

दान भोग और नाश तीन गति, धन की ना चोथी कोई।

जतन करंता पच् मरगा, साथ ले गया ना कोई॥

इक लख पूत सवा लाख नाती, जाणै जग में सब कोई।

रावण के सोने की लंका, साथ ले गया ना कोई॥

सुक्ष्म खाना खूब बांटना, भर भर धरना ना चाहिये॥2॥

भोग्यां भोत घटै ना तुष्णा, भोग भोग फिर क्या करना।

चित में चेतन करै च्यानणो, धन माया का क्या करना॥

धन से भय विपदा नहीं भागे, झूठा भरम नहीं धरना।

धनी रहे चाहे हो निर्धन, आखिर है सबको मरना॥

कर संतोष सुखी हो मरीये, पच् पच् मरना ना चाहिये॥3॥

सुमिरन करे सदा इश्वर का, साधु का सम्मान करे।

कम हो तो संतोष कर नर, ज्यादा हो तो दान करे॥

जब जब मिले भाग से जैसा, संतोषी ईमान करे।

आड़ा तेड़ा घणा बखेड़ा, जुल्मी बेईमान करे॥

निर्भय जीना निर्भय मरना ,'शंभु' डरना ना चाहिये॥4॥

Ho ghode aswar

हो घोड़े असवार भरथरी, बियाबान मँ भटक्या।

बन कै अन्दर तपै महात्मा,देख भरथरी अटक्या॥टेर॥

घोड़े पर से तुरत कूद कर, चरणां शीश नवाया।

आर्शीवाद देह साधू ने, आसन पर बैठाया॥

बडे प्रेम सँ जाय कुटी मँ, एक अमर फल ल्याया।

इस फल को तू खाले राजा, अमर होज्या तेरी काया॥

राजा नै ले लिया अमर फल, तुरत जेव मँ पटक्या।

बन कै अन्दर तपै महात्मा, देख भरथरी अटक्या॥1॥

राजी होकर चल्या भरथरी, रंग महल मँ आया।

राणी को जा दिया अमरफल, गुण उसका बतलाया॥

निरभागण राणी नै भी वो नहीं अमर फल खाया।

चाकर सँ था प्रेम महोबत उसको जा बतलाया॥

प्रेमी रै मन प्रेमी बसता, प्रेम जिगर मँ खटक्या।

बन कै अन्दर तपै महात्मा, देख भरथरी अटक्या॥2॥

उसी शहर की गणिका सेती, थी चाकर की यारी।

उसको जाकर दिया अमरफल थी राणी सँ प्यारी॥

अमर होयकर क्या करणा है, गणिका बात बिचारी।

राजा को जा दिया अमरफल,इस को खा तपधारी॥

राजा नै पहचान लिया है, होठ भूप का छिटक्या।

बन कै अन्दर तपै महात्मा, देख भरथरी अटक्या॥3॥

क्रोधित होकर राज बोल्या, ये फल कित सँ ल्याई।

गणित सोच्या ज्यान का खतरा, साँची बात बताई॥

चाकर दीन्या भेद खोल, जद होणै लगी पिटाई।

हरिनारायण शर्मा कहता, बात समझ में आई॥

उपज्जा ज्ञान भरथरी को जद, बण बैरागी भटक्या।

बन कै अन्दर तपै महात्मा, देख भरथरी अटक्या॥4॥

Rani khadi sabha k beech
थारी सुफल कमाई महाराज भरथरी थारी, भरथरी थारी।

मालिक कै कारण जोग फकीरी धारी॥टेर॥

है होणहार बलवान, कर्म गति न्यारी।

बिधना का लिखिया लिख, टरै नहीं टारी॥1॥

थारा राजपाट धन माल, सभी रुल ज्यावै।

थारा देख के भगवाँ भेष, शरम मोय आवै॥2॥

है राजपाट घनमाल, सपन की माया।

भिक्षा दे पिंगला मात, भरथरी आया॥3॥

राणी खड़ी सभा कै बीच, लट इयाँ तोड़ै।

मेरा सात फेराँ का पीव, मतीना मुख मोड़ै॥4॥

तेरो मदियो गोरखनाथ, पति भरमाया।

मेरो राजन बिछुड्यो जाय, तड़फ रही काया॥5॥

मत देवो गुरु नै गाल, अमर करी काया।

मत तड़फै पिंगला मात, प्रभु की माया॥6॥

गुरु खड्या जंगल कै बीच, देया रया हेला।

थे आओ भरतकुमार गुरु का चेला

Bharat piyara

भरत पियारा मेरो नाम हनुमान, नाम हनुमान मेरो॥टेर॥

कौन दिशा से आयो भाई, इस पहाड़ को करसीं कांई

देख लेई तेरी प्रभुताई, झेल्यो मेरो बाण॥1॥

लंकापुरी से आयो भाई, लक्षमणजी ने मुरछा आई

रावण सुत ने बाण चलायो, मार्यो शक्ति बाण॥2॥

कहो भरत क्या जतन उपाऊँ, लँगड़ा कर दिया कैसे जाऊँ

संजीवन कैसे पहुँचाऊँ उदय होसी भान॥3॥

आवो बाला बैठो बाण पे, तन्ने पहुँचा दूँ लंका धाम में

ऐसी मेरे जचै रही ध्यान में बाण विमान॥4॥

ले संजीवन हनुमत आये, लछमण जी नै घोल पिलाये

सुखीराम भाषा मे गाये, चरणो में ध्यान॥5॥

Ho bas baat jarasi
बस बात जरासी, होसी लिखी रे तकदीर॥टेर॥

लिखी करम की कैयां टलसी, तेरो जोर कठे ताई चलसी

दुरमत करयां रे घणो जी बलसी, दुरमत छोड़ो मेरा बीर॥1॥

तूँ क्यूँ धन की खातिर भागे, किस्मत तेरे सागे सागे

तूँ सोवे तो भी या जागे थ्यावस ले ले मेरा बीर॥2॥

तेरो मन चोखी खाने पर, छाप लगी दाने दाने पर

मिल जासी मौको आने पर,जिस रे दाने मे तेरो सीर॥3॥

के चावे तू चोखा संगपन, के चावे तूँ मान बड़प्पन

होवे एक विचारे छप्पन, शंभु भजो रे रघुवीर॥4॥

Nar chhod de kapat ka jaal
नर छोड़ दे कपट के जाल, बताऊँ तनै तिरणे की तदबीर ॥टेर।

हरि की माला ऐसे रटणी, जैसे बांस पर चढज्या नटनी

मुश्किल है या काया डटनी, डटै तो परले तीर॥1॥

गऊ चरणे को जाती बन मे, बछडे को छोड़ दिया अपणे भवन मे

Tuesday, September 10, 2013

अमीर मनाई

ये कुछ शेर आज ऐसे मिले जो दिल के पास है ..इन्हें सहेज के रख रहा हूँ....!!
जुदा है दुखतर-ए-राज का नाम हर सोहबत में ऐ साकी
परी है मयकशों में, हूर है परहेज़गारों में
कौन सी जा है जहाँ जलवा-ए-माशूक नहीं
शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर 


उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
ढूँढने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ

[ हसरत=इच्छा/Desire ]

मेहरबां होके बुलालो मुझे चाहो जिस वक्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के आ भी न सकूँ

डाल कर ख़ाक मेरे खून पे क़ातिल ने कहा
कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी के मिटा भी न सकूँ

ज़ब्त कमबख्त ने और आ के गला घोंटा है
के उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ

[ज़ब्त=सहनशीलता/Forbearance]

ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना
क्या कसम है तेरे मिलने की के खा भी न सकूँ

उस के पहलू में जो लेजा के सुला दूँ दिल को
नींद ऎसी उसे आए के जगा भी न सकूँ

[पहलू=गोद/Lap ]

नक्श-ऐ-पा देख तो लूँ लाख करूँगा सजदे
सर मेरा अर्श नहीं है कि झुका भी न सकूँ

बेवफा लिखते हैं वो अपनी कलम से मुझ को
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ

इस तरह सोये हैं सर रख के मेरे जानों पर
अपनी सोई हुई किस्मत को जगा भी न सकूँ

Friday, June 21, 2013

संसार एक झूठ या एक सच

पढ़ पढ़ आलम फाज़ल होया कददे अपने आप नु पढिया ही नहीं


कितना झूठ है इस दुनिया में. लगभग सब कुछ झूठा है,जनम से लेकर मौत तक इंसान सिवा झूठ को जीने के कुछ नहीं करता.
एक भी ऐसा शख्स नहीं जहाँ में जिसके अपने झूठ न हो.बचपन से लेकर अब तक न जाने कितने झूठ सुने बोले और देखे हैं कई बार
तो सच को भी इतना घबरा के बोलना पड़ता है मानो पाप झूठ बोलने पे नहीं सच बोलने पे लगता हो. आखिर क्या है जिसे हम इस तरह से झूठ बोल बोल के जीवन में पाना चाहते हैं .
हमें शर्म भी नहीं आती ,शर्म की छोडो अहसास तक नहीं होता की हम झूठ बोल रहे हैं. आखिर क्या मकसद है दुनिया में सच और झूठ दोनों के होने का क्या कोई बड़ा छोटा भी है इनमे
या दोनों एक ही सामान है ? नहीं एक सामान होते तो फिर दो क्यूँ होते एक ही शब्द में समेटे जाते दोनों.तो क्या सच बड़ा है और झूठ छोटा अगर ऐसा है तो बड़ी को छोड़ हम छोटी बात का सहारा क्यूँ लेते हैं ?

और विरोधाभास देखिये ,गुरु को ब्रह्मा की उपाधि दी गई है,ब्रह्म यानी वो चीज़ जो सत्य है.गुरु हमें सिखाता है की "झूठ बोलना पाप है " मैंने पुछा गुरूजी जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए ?
गुरूजी बोले  पढ़ लिख के अफसर बनो नाम-प्रसिद्दी कमाना यही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए. क्या वाकई अफसर बन नाम कमा के मर जाना ही इस संसार का सत्य है?नहीं इतने अनमोल
कहे जाने वाले जीवन का ये तुच्छ और झूठ सा लगने वाला नाम सत्य नहीं हो सकता.क्यूँ के ये नाम तो कुछ सौ सालों तक रहेगा फिर भुला दिया जायेगा या किसी झूठे के द्वारा झूठ्ला दिया
जायेगा.मने गुरु ने जो कहा वो सत्य नहीं झूठ है.

माँ-बाबा ..संसार के पालनहार विष्णु होंगे पर मेरे लिए मेरे पालनहार मेरे माँ बाप है.और खुद इश्वर ने माँ बाप को देव बताया है.देव यानी सत्य को समझने वाले.उनसे हमने धर्म शास्त्र के अध्ययन को जाना.
लग गए अध्ययन में,एक दिन अचानक कहीं से विवेकानंद की किताब हाथ लग गई -प्रेमयोग/भक्तियोग उसमे जो कुछ लिखा था उसे पढ़ के मन के भीतर गहराई तक एक बात बैठ गई की सारी दुनिया एक माया है और यहाँ जो कुछ है वो एक भ्रान्ति है
बस उसका असर था की मन में एक तरह का बैराग सा जाग उठा.ध्यान,योग,भजन,सत्संगत,प्रकृति से जुड़ाव,जीव पे दया,सब का आदर सम्मान,जांत पांत की अनदेखी और मानवता को धर्म मानना एक लत सी बन गई ऐसी लत जो मन को सुकून दे रही थी
पर मेरा सुकून मेरे माँ बाबा के लिए असंतोष बनता जा रहा था.पता नहीं क्यूँ मुझसे बाबा ने पूछ लिया -आगे क्या सोचा है ? मैं तो बैरागी हो चला था मुह से सहज ही निकल पड़ा आगे "हरि इच्छा बलवान" ..! मैं मेरा काम कर रहा हूँ बाबा,आप बताओ आगे क्या
करना चाहिए? बाबा निशब्द थे पर अपने यथार्थ में लौटते हुए बोले,कोई पढ़ाई लिखाई करनी है तो करो नहीं तो कोई काम धंधा देखो.जीवन का गुजारा चलाना सीखो.मैंने बाबा से सीखे शास्त्र अध्ययन से जाने हुए सत्य को सामने रखा बाबा शास्त्रों में लिखा है
इंसान को भगवद भक्ति करनी चाहिए बाकी "योगक्षेमं वहाम्यहम ".बाबा पता नहीं किस बात पे चिढ गए ऐसा क्या असत्य मैंने बोल दिया ? बोले ज्यादा विवेकानंद मत बन...!! मैं तो जैसे ठगा सा गया ,मैंने कहा बाबा विवेकानंद के बारे में ऐसे बोल के आप क्या कहना चाहते हैं क्या वो कोई बेकार आदमी थे? अब बाबा पहले से ज्यादा तेज आवाज में बोले तुझे जो करना है कर पर मैं ऐसे जीवन भर तुझे पालने वाला नहीं हूँ,सामान उठा और निकल ले यहाँ से कल ही.
                                                                                  हम दोनों को जिरह करते देख माँ बीच में आई और बोली तू चुप नहीं रह सकता क्या ?जा उठ यहाँ से और काम कर अपना.मैं उठा और चल दिया कुछ अनसुलझे सवालों के साथ मुझे लगा माँ तो सब समझती है बाबा से ज्यादा धार्मिक है बात को समझेगी या समझायेगी.कुछ देर बाद माँ आई और बोली, सारी जिंदगी यहाँ खेतों में पच पच के तुझे और तेरी बहन को पढाया लिखाया तेरी बहन की शादी की,ये घर बनाया,तुम लोगो को कभी कोई चीज़ की कमी नहीं होने दी खुद भले थोड़े में जिए.पर तुझे हमेशा खूब देने की कोसिस की.ये सोच कर की तू बड़ा होगा पढ़ लिख के पैसा नाम कमाएगा,यहाँ से खुद भी निकलेगा और हमें भी निकालेगा.लेकिन तुझे पता नहीं कहाँ से ये ज्ञान मिला है.अब मैं उस स्थिति में था जहाँ मेरे लिए ये समझ पाना असंभव था की सच क्या है और झूठ क्या.मैंने अपने सारे तर्क दे दिए पर माँ की बात के आगे सब फीके लगे.लगा की नहीं माँ-बाबा का दिल दुखा के धर्म के मार्ग पे नहीं चला जा सकता.आखिर एक अधर्म से धर्म की सुरुआत कैसे हो सकती है.इसका मतलब है धर्म में भी विरोधाभास है अर्थात सत्य और झूठ की परिभाषा संसार में स्पष्ट नहीं है.क्यूँ के अगर योगक्षेमं वहाम्यहम है तो आखिर ये बात क्यूँ कही गई और किसके लिए ? क्या सिर्फ विवेकानंद के लिए और उनके लिए ही ये बात सत्य क्यूँ है ? क्यूँ मेरे लिए ये बात असत्य है ? सवाल अब भी अनसुलझे थे खैर समय का चक्र चला और गाँव के उस आँगन के साथ ही छूट गया धर्म से अपना नाता.अब मैं दोनों में से एक ही बात को सत्य मान सकता हूँ और स्वाभाविक रूप से वो बात शास्त्रों में नहीं लिखी गई है इसलिए मैंने माँ बाबा की बात को सत्य माना और चल पड़ा सत्य (पैसे ,नाम ,प्रसिद्धी ) की खोज में.

सब कुछ छोड़ दिया या कहूँ छूट गया नहीं छूटा तो मन से बैराग अब भी यदाकदा जब किसी गरीब भूखे बच्चे को सिग्नल पे खड़ी चमचमाती वातानुकूलित कार के अंदर बैठे अमीर बर्गर खाते बच्चे से भीख मांगते देखता हूँ , तो मन विचलित हो जाता है और फिर जाग उठता है मेरा बैराग .फिर वो ही सवाल उठते हैं मन में की आखिर क्या है जीवन का सत्य ?क्यूँ ये दुनिया इधर से उधर भागती फिर रही है क्या यूँ भाग दौड़ करते हुए मर जाना ही इंसान की नियति है ?अगर ऐसा है तो फिर ये बड़े बड़े शास्त्र क्यूँ है? क्यूँ विवेकानंद को देवपुरुष कह के उनको सम्मान दिया जाता है जब कोई माँ बाप ये नहीं चाहते की उनका बेटा विवेकानन्द बने .आखिर क्यूँ ?

मैं अपने छोटे से जीवन में एक बात तो तय रूप से जान गया हूँ की आज की दुनिया में जीने वाला स्वार्थ के आगे नहीं बढ़ सकता.अगर उसे नाम पैसा प्रसिद्धि चाहिए तो स्वार्थी बनना पड़ेगा.बल्कि उसे इसे अपना स्वभाव बनाना पड़ेगा और एक बार जो गृहस्थ बन गया फिर उसका इस स्वाभाव को त्यागना असंभव ही है.तो अगर स्वार्थ ही सत्य है तो फिर क्या परमार्थ झूठ है? हो सकता है मेरे इन् सवालों का आप के पास जवाब हो पर वो जवाब सत्य है या झूठ ये तय कैसे हो ?क्यूँ के यहाँ झूठ और सच में बड़ा कौन है ये तय नहीं है ,क्यूँ के सत्य और झूठ परिभाषित नहीं है .फिर भी हम चले जा रहे हैं अपने अपने सच या कहूँ झूठ के साथ..!!

 

Monday, June 10, 2013

मैं पहाड़न ...!!

मैं पहाड़न
घास मेरी सहेली,पेड़ों से प्यार ।
मेरा वो बचपन,वो माटी का आँगन
भुलाऊँ कैसे !दादी की गुनगुन ?
कोंदों की रोटी,नमक संग खाऊँ
वो भी ना मिले,तो मैं भूखी सो जाऊँ ।
निराली पाठशाला ,मेरा तो बस्ता
घास का भारी पूला ,मेरी कलम
कुदाल औ दराती ,दिन भर भटकूँ
फिसलूँ गिरूँ,चोट खाके मुस्काऊँ
उफ़ ना करूँ
नंगे पाँव ही,चढ़नी है चढ़ाई,
आँसू को पोंछ,लड़नी है लड़ाई ।
सूने है खेत
वीरान खलिहान,भूखी गैया ने
खड़े किए हैं कान,पत्थर- सा कठोर
है भाग्य मेरा ,फूलों -से भी कोमल
है गीत मेरा ।
हुई बड़ी मैं.नजरों में गड़ी मैं
पलकें ना उठाऊँ ,खुद को छुपा
आँचल ना गिराऊँ,मेंहदी रचे
नाजुक गोरे हाथ,पराई हुई
बाबुल की गली ,हुई विदा मैं
बाबा गंगा नहाए,आँसू में भीगी
मेरी माँ दुखियारी ,तीज त्योहार
आए बुलाने भाई,भाई को देख
कितना हरषाई,दुखड़ा भूल
अखियाँ मुसकाई,एक पल में
बस एक पल में,बचपन जी आई ।

(नोट :- ये कविता मैंने कहीं पढ़ी थी तो डायरी में नोटेड थी आज पहाडो में आया तो सोचा लिख दूँ .)

Thursday, June 6, 2013

क्रिकेट का मायाजाल ...!!

बाड खेत को खाय रही यूँ किरकेट के खेल में पकडो इनको मारो डंडा डालो सबको जेल में जनता अपनी खुशी मनाये क्या मारा है गेल ने देखो कैसे मत मारी है इस भद्र जनो के खेल ने पैसे का ये खेल या कह लो एक अजब मायाजाल है आत्म हनन करके जो खेले वो मोहरा मालामाल है कोई धर्म की संज्ञा देता कोई कहे भगवान है आड धरम की लेकर खेले ये कैसे शैतान है कुछ भी कह दूँ अपने छंदों में फर्क इन्हें क्या पड़ता है पापों का भुगतान यहीं पर हर किसी को करना पड़ता है

Wednesday, June 5, 2013

भारत निर्माण ..!!

राजनीती को ले चलो अब गाँव के गलीयारों में
मिट  रहा है लोकतंत्र अब संसद की दीवारों में

निति इसमें बची नहीं बचा है तो सिर्फ राज
दिल्ली में बैठे देख  हैं राजा सारे काम काज

नेता जनम लेते हैं आजकल नेता की कोख से
जनता भी इन्हें चुन लेती है नएपन के शौक से

महलों में बैठ के राजा ठाठ से देते हैं यूँ फरमान
संसद हमारा मंदिर है और हम हैं इनके श्रीभगवान

बहुत हुई इनकी इज्ज़त बहुत हुआ इनका ये सम्मान
हर गाँव करे खुद को रोशन ,हर शख्स करे भारत निर्माण

धरती मेरी माता ..!!

पंछी दाने के लिए छोड़े पेड़ की छाँव दो रोटी के आड़ में छूटा अपना गाँव सात पीढी से भर रहे जो खेत सबका पेट बाँछे सब की खिल गई देख के बढ़ती रेट माया रूप है मोहिनी जिसने मन भरमाए पैसों की भूख में बच्चे माँ को बेच के खाए निश्चित है एक दिन सब रो रो के पछताएँगे गाँवों को पिछड़ा बताने वाले यहीं लौट के आएँगे जब भी वापिस लौटेंगे मेरे गाँव उन्हें अपनाएँगे सब मिलेगा यहाँ पे उनको पर माँ को ना पाएँगे

Friday, May 17, 2013

नशा और मन ..!!


(“मैं जब बहुत छोटा था तब से मैं मेरे इस सपने को देख रहा हूँ ..) ..अक्सर मैं जब भी इस तरह की बात किसी के मुह से सुनता हूँ तो मुझे एक खालीपन का अहसास होता है और ये एकमात्र अहसास है जो मुझे होता है वाकई में बाकी अहसासों का तो जैसे मैं नाटक सा करता हूँ..कोई हंसा तो हंस दिया ,कोई रोया तो रो दिया ..माहोल गंभीर है तो गंभीर हो गया और खुशनुमा है तो खुश दिखा दिया ..पर ये जो खालीपन है ये मुझे महसूस होता है..हमेशा ..!
खालीपन इस बात का के मुझे ऐसा कुछ याद नहीं आता और जब मैं सोचने बैठता हूँ की क्यूँ नहीं आता तो दिमाक स्थिर हो जाता है एक चीज़ पे आके टिक जाता है या कहूँ शून्य में चला जाता है उस शून्य में जिसे नशे की लत ने मेरे जीवन में बनाया है, एक बड़ा सा शून्य जिसके पार देखने की क्षमता मेरे दिल और दिमाक में नहीं सी प्रतित होती है.मैं जब अपने अतीत को याद करता हूँ तो दूर दूर तक नशे में डूबा एक शख्स दिखाई देता है जिसे वर्तमान का भान नहीं,भूत उसे याद नहीं,भविष्य की कोई चिंता नहीं,बड़ी अजीब सी शख्शियत है सच में बड़ी अजीब...!
ये जो शख्स है उसने ना जाने कितने हँसने और रोने के लम्हे यूँ ही शून्य में तकते हुए गुजार दिए जिंदगी के ११ साल,अनमोल जीवन के अनमोल ११ साल अखंड नशे में गुजारने के बाद कोई आदमी सामान्य आदमी नहीं रह जाता ,सामजिक,आर्थिक,न्यायिक,आध्यात्मिक हर दृष्टिकोण से उसका जीवन असामान्य रहता है.इसी असामान्य स्थिति में जब कभी अतीत में पलट के देखता हूँ तो कुछ नहीं मिलता मन निराश हो उठता है की क्यूँ मैंने ओरों की तरह नहीं जिया अपने जीवन को ..खेलकूद,पढ़ाई लिखाई ,मस्तिमजाक ,घूमना फिरना,कोई लक्ष्य बनाके चलना ,कोई शौख रखना,राजनीतक-सांस्कृतिक या कोई रचनात्मक कार्य ..कुछ भी तो नहीं किया मैंने ..मैं बस जिए जा रहा हूँ उसी शून्य में और जीवन उस प्राकृतिक दृश्य की तश्वीर की मानिंद हो गया है  जिसको बनाने वाला उसे बनाये जा रहा है पर रंग नहीं भर रहा सफ़ेद पन्ने और काली पेन्सिल के निशाँ के अलावा दूसरा कोई रंग नहीं दिखता मुझे मेरी पिछली जिंदगी के कैनवास पर ..!!
और अब तो हालत ये है की नशे में मैं हूँ की मुझपे नशा है ये भेद करना खुद मेरे लिए मुश्किल है इतना शातिर हो गया हूँ मैं  की मेरी इच्छा नहो तो किसी को भनक तक ना लगे की मैं अपने होश में नहीं हूँ.पर आखिर कब तक चलेगा ऐसा ?कब तक मैं यूँ ही शून्य में ताकते हुए जीवन काटता जाऊंगा और फिर अतीत को खाली बनाये रखूँगा ? कोई नहीं जानता सिवा मेरे,पर मैं ये भी जानता हूँ की जब भी मैं नशे से बाहर  आने की कोसिस करता हूँ ये दुनियावी बातें और यहाँ का माहोल मुझे बेचैन कर देता है और फिर मैं लौट जाता हूँ अपनि दुनिया में उस दुनिया में जहाँ कोई भाव नहीं,खुशी नहीं गम नहीं ..हंसना ,रोना जीवन के हसीं सपने कुछ नहीं है वहाँ, अगर कुछ है तो एक स्थिर और सफ़ेद जिन्दगी जिसपे वक्त के हाथों रोज प्रतिक्षण बनती जा रही है एक बेरंग तश्वीर...!!







Monday, May 6, 2013

यारां दा टशन (एक जीवन शैली जो देश के विकाश का पैमाना है)

 चंडीगढ़ का नाम सुनते ही देश दुनिया की थोड़ी खबर रखने वाले लोगो के मुह से अनायास ही निकल पड़ता है ,वाह ! शहर हो तो ऐसा.
वाकई ये शहर अलग है ,यहाँ साफ़ सुथरी सड़के हैं ,कोई गन्दा नाला नहीं है,पानी निकासी की व्यवस्था ऐसी की बदल फटने पे भी आधा घंटे में पूरा पानी सडको से साफ़ हो जाये. पूर्व नियोजित ढंग से सेक्टर वाईज़ बसाया हुआ शहर .यहाँ के बंगले देखो तो दंग रह जाओ ,हर बंगले के आगे हरा भरा बगीचा,चमचमाती  महँगी महँगी कारें ,महंगे विलायती कुत्ते ,सुरक्षा में जवान आदि आदि ..पूरा एक मायाजाल है जो किसी भी संतोषी जीव के मन में अपने हाल की स्थिति के बारे में असंतोष पैदा कर दे.

यहाँ की जीवन शैली भी बड़ी अजीब है (गाँव वालो के लिए पूरी फिल्मी ) सुबह १० बजे घर से महँगी गाडी में बैठ के निकलना ,२ करोड के खरीदे हुए शोरूम में जा के बैठना ,भले उसमे कमाई हो न हो ..पर सोसाबाजी पूरी  होती है ..शोरूम में एयर कंडीसन लगाया ,दो कर्मचारी रखे ,दोपहर में पिज्जा खाया ,जैसे तैसे शाम के ६ बजाते हैं ,और फिर जैसे ही ६ बजे दूकान बंद ,और शाम के स्वागत की तैयारी..घर पे गए शावर लिया..इत्र वित्र छिड़का ... शामके मूड के हिसाब से गाडी निकाली ..और निकल पड़े ... किसी पब,बार,डिस्को,के लिए ..देर रात तक पार्टी शार्टी की..और घर आ के सो गए ..इसको नाम दिया "यारां दा टशन ".

मेरे एक मित्र ने मुझे शाम की पार्टी में निमंत्रित किया ,ये मेरे लिए पहला मौका था,तो मुझे मालूम नहीं था की पार्टी दरअसल कहते किसको हैं ,मैं जींस पे कुरता डाल के चला गया,जो पता बताया था वहाँ आधा घंटे तक तलाशने के बाद मैं पहुंचा. वो एक ठेठ विलायती तरीके का डिस्को क्लब था ,बाहर दो बाहुबली खड़े थे बोले 'पास प्लीज़' आधा मिनट तक उनकी बात का मतलब समझते हुए मैंने जेब से मोबाइल निकाला और मित्र को फोन किया..वो अंदर अँधेरी सी सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते हुए आया और मुझे अंदर ले के गया ..
जब अंदर पहुंचे तो वहाँ की छटा देख के मन घबराने लगा .. इतना शोर शराबा ,हायो रब्बा हो रहा था ..मित्र मेरे साथ खड़ा था कुछ सुनने की गुंजाइश नहीं थी तो बस बार बार मेरी तरफ देख के मुशकुरा रहा था ..और मैं फटी आंखो से तथाकथित आधुनिक समाज के जवान लोगो को देख रहा था जिनमे लड़के और लड़कियां दोनों थी . कुछ काकी ,फूफी भी लग रही थी.
करीब १० मिनट तक सब देखने और सहने के बाद मेरा सब्र टूट गया मैंने मित्र से जरा बाहर आने का इशारा किया , बाहर आते ही मैंने उससे जाने की आज्ञा मांगी ..तो मुझे हिकारत की नजर से देखने लगा बोला " अबे हमेसा गंवार ही रहेगा क्या , जिंदगी के मजे कब लेगा ?" ये सवाल मेरे लिए महत्वपूर्ण था और मैं उसका जवाब दे भी सकता था ,पर फिलहाल मैंने वहाँ से जाने में ही भलाई समझी,सो चला आया .

बाहर आने पे मुझे ऐसा प्रतीत हुआ की मानो कुम्भीपाक  नरक से सीधे निकल के आ रहा हूँ.. आखिर कैसे जीते हैं ये लोग ऐसे माहोल में..अपने मन के सन्नाटे को मिटाने के लिए ये लोग डिस्को में तेज आवाज पे नाचते हैं,लेकिन मन का सन्नाटा ,बाहरी आवाज से कैसे मिटेगा ? जिस नशे में चूर ये लोग नाचा गा रहे हैं वो तो कुछ देर का है उसके उतारते ही फिर वो ही सन्नाटा इन्हें घेर लेगा .. !

ऐसे विकसित शहर की जवान पीढ़ी इस तरह अपनी जवानी जाया कर रही है देख के दुःख हुआ ..क्या ये है वो विकाश और उसका पैमाना जिसके लिए पूरा भारत और उसकी हर आने वाली सरकार वादे  कर कर के सब्जबाग दिखा रही है ? अगर इसी को विकाश कहते हैं तो फिर इससे तो अच्छा हम जंगली ही ठीक थे ,कम से कम जंगली तो थे ..!!






जीवन परिभाषा



पिछले दिनों माँ के पास बैठा था. मेरी उम्र २७ की हो गई है तो माँ ने स्वभाविक रूप से मुझसे एक सवाल किया की “छोरी देखूं तेरे खातिर ?
फिर मेरे जवाब का इन्तजार किये बैगेर या यूँ कहूँ उसे अनसुना करते हुए मुझे बताने लगी मेरी बुआ के लड़के हैं न वो प्रकाश भाईसाहब उनके दोस्त की बहन की बेटी है ,स्कूल में पढाती है टीचर है ,लम्बाई थोड़ी कम है पर घर के सारे काम जानती है ,मुझे अच्छी तो लगी पर मुझे ऐसे लड़की नहीं चाहिए जो पहले से टीचर है मैं तो ऐसी ढूंढ रही हूँ जो मेरे पास आके फिर टीचर बने .भले फिर स्कूल में पढाओ जा के घर के का काम क्या है मैं ही कर लुंगी ,थोडा तो वो भी कर ही सकती है |तू बोल क्या कहता है ?

मैं बड़े अनमने मन से इसे सुन रहा था,मैंने लड़की के सारे विशेषणों को किनारे रखते हुए,और कमियों को नजरअंदाज करते हुए शादी के महत्त्व पे सवाल खड़ा कर दिया ..मैंने माँ से पुछा की कोई और विकल्प नहीं है जीने का ? क्या शादी जरुरी है ? तू क्यूँ किसी अनजान लड़की को मेरे तुम्हारे जीवन में लाना चाहती है? छोड़ न मैया मुझे नहीं करनी शादी वादी , मुझे अकेले ही अपने ढंग से जीवन जीना है |

इतना सुनना था की माँ ने मेरी बातों को उटपटांग बता दिया और बोली ... यही जीवन है ,घर तो बसा के जाउंगी तेरा अकेला रहेगा तो कौन करेगा तेरी देखभाल अभी तो मैं हूँ मेरे हाथ पाँव सलामत है पर कितने दिन ,बाबा भी अब कमजोर होने लगे हैं जब से उनकी तबियत बिगड़ी है , उनके सामने ऐसी बात मत कर देना उन्हें तकलीफ होगी. तुझे दिक्कत क्या है शादी से, वंश आगे कैसे बढ़ेगा ..अच्छी लड़की मिल जायेगी हर कोई तेरी सुधा भाभी जैसी नहीं होती..समझा ? ये जो टीचर लड़की है न वैसे अच्छी है बस मुझे लम्बाई में थोडा लगता है ५.३ तो होगी, मेरे जितनी है तुझे अगर दिक्कत नहीं हो तो मैं बात करती हूँ ,तू देख आ लड़की को, बोल ? अच्छे घर की लड़की है बिना बाप की है गरीब भी है हमें कुछ नहीं चाहिए वैसे भी एक साडी के साथ ही लाऊंगी बहु को,तू बोलेगा  तो घोड़ी,बजा और रिसेप्सन भी नहीं करेंगे .लड़की वालो को मैं मना लुंगी. बोल ?

मुझे अब घबराहट होने लगी थी तो मैंने वहाँ से उठने में ही भलाई समझी ,मैंने कहा ठीक है तू कर तेरेको जो करना है,मैं तो इस दुनिया में ही तेरे मर्ज़ी से आया हूँ हक है तेरा पूरा ,बस इतना सुन ले की मेरे पास एक ही जीवन है जिसे मैं गृहस्थी के ढर्रे पे कुर्बान नहीं करना चाहता | इसके बावजूद भी तू अगर यह चाहती है तो देख ले तेरे हिसाब से .. मैं खेत जाता हूँ ,रात को देर से आऊंगा खाना बाबा के साथ खा लियो तुम.

जब सब मुझे ये पूछते हैं की मैं शादी क्यूँ नहीं करना चाहता तो मेरा जवाब एक सवाल होता है एक सवाल जो यदा कदा जेहन में आ ही जाता है की क्या वाकई इंसान के लिए यही एक तरीका उचित है जीने के लिए के पढ़ो लिखो,शादी करो ,बच्चे करो बच्चों को पालो पढाओ लिखाओ ,बड़ा करो, शादी करो, नाती दोहितों को के साथ समय गुजारो राम रहीम का नाम लो और बूढ़े हो जाओ हुए खांसने लगो,जब तक मौत की हिचकी न आ जाये ..खांसते रहो और जीवन की ढर्रे पे नैया को हांकते रहो ? क्या वाकई बस यही है जीवन की परिभाषा ?

अगर हाँ तो कितना व्यर्थ है जीवन जहाँ में , आखिर इतना कष्ट ,इतनी पीड़ा सहके जनम लो ,फिर तरह तरह के गम और दुःख सह के जहाँ में जियो किसलिए जनम के मरने के लिए ?नहीं ये तार्किक नहीं लगता ये इतने छोटे उद्देश्य के लिए विधाता ने  मानव रुपी इतनी जटिल सरंचना का निर्माण नहीं किया होगा ,कोई तो राज,रहस्य होगा इस जीवन का ?आखिर क्यूँ ये दुनिया अस्तित्व में आई ,बनके के उजड़ने के लिए ?

हम जब कभी थोडा रूककर अपने चारो तरफ देखोगे तो हर किसी को एक जैसे ढर्रे पे चलता हुआ पाओगे. ये जानते हुए की इस ढर्रे पे चलते चलते ये जीवन खतम हो जाना है.हम क्यूँ ऐसे कुए का मेढंक बनना पसंद करते हैं जिससे बाहर हम घुसने के बाद निकल ही नहीं पाएंगे.क्या सिर्फ इसलिए की उस कुए में थोडा पानी है अरे पानी के लिए तो समंदर है ,तालाब है,माना थोड़े असुरक्षित हैं उनका पानी थोडा गन्दा और कड़वा है पर आज़ादी तो होगी बाहर की खुली हवा खाने की ,एक अँधेरे कुए में घुट घुट के तो नहीं मरेंगे..

वंश चलाने के लिए दुनिया में करोडो बच्चे अनाथ हैं एक दो को गोद लेके भी वंश चल सकता है  वंश के लिए शादी कर के व्यर्थ जीवन गंवाना मुझे गंवारा नहीं मैं लगा हूँ अपने जीवन की परिभाषा अपने हाथों लिखने में ..जिस दिन समझने लायक हो गई ..सबको बताऊंगा की ..बाकी विधाता सब जानता है ,जो करेगा अच्छा ही होगा ..!!






Monday, April 22, 2013

जीवन चलने का नाम ..!!


पिछले कई दिनों से
 अजीब पसोपेश में मन उलझा हुआ है , के आखिर इस दुनिया में अच्छाई किसे कहते हैं ,वो कौन से काम है जिनको करने पे कोई आपका विरोध नहीं कर सकता .? क्या सच है क्या झूठ ..? जब तब मैं ये सवाल आसपास के लोगो के सामने उठाता रहता हूँ ..लेकिन कोई भी दूसरा जवाब पहले वाले से मिलता नहीं है .हर इंसान के मन में सवाल तो उठते ही होंगे न ..तो क्या उन्हें जवाब मिल जाते हैं ..? अगर नहीं मिलते तो क्या सब आत्माएं अतृप्त ही रहती है .?
देश में रोज छोटी बड़ी घटनाएँ होती रहती है , सुन देख के मन विचलित हो उठता है की क्यूँ ऐसा हो रहा है ? लेकिन कोई माकूल जवाब नहीं मिलता ..पता नहीं कब तक मन ऐसे ही अतृप्त रहेगा ..!!हर नयी घटना पहले वाली को छोटा बना देती है ..!!
गरीब की लाचारी अच्छी नहीं लगती , अमीर का दंभ अच्छा नहीं लगता .. जब बात पैसा कमाने की आती है तो सवाल आता है की क्यूँ और किसके लिए कमाएँ ...परिवार का पेट तो जानवर भी पाल लेता है ..दूसरों के लिए कमाएँ तो अपनों की नजर में मुर्ख हो जाऊंगा .. मन करता है साधारण बना रहूँ रहता भी हूँ लेकिन आस पास असाधारण लोगो की भीड़ है जो जीना मुहल कर देती है ...!! जब देखता हूँ लोग जाती धर्मं के नाम पे  लड़ झगड रहे हैं तो गुस्सा आता है साथ में तरस भी की लोग कितने अज्ञान है ..लेकिन पंडित दोस्त इसे नकारता है तो  उससे झगडा करने का मूड नहीं होता .. फिर कहता हूँ ठीक है भाई ...हिंदू महान है .. लेकिन सवाल ये है की हिंदू है कौन.. सहिष्णुता का पाठ पढाने वाले असहिष्णु हो कर मार काट करें तो हिंदू कैसे ?

गाँवों से इतना लगाब है की शहर के नाम से भी नफरत है .. ढोंग और दिखावे के खोखले आवरण में लिपटे लोग पता नहीं किस इच्छा को पूरा करने के लिए इस इंसानी ढेर में कचरे की थैली की तरह इधर उधर पड़े रहते हैं ...? लेकिन ये बात सिधान्त्वादी सिद्ध करने में एक पल भी नहीं लगते मेरे गाँव के वो लोग जो शहरो की झूठी चमक से उस पतंगे की तरह प्रभावित है जिसे पता नहीं है की वो दूर जलने वाले शमाँ में रौशनी तो है लेकिन उस रौशनी के पीछे मौत छिपी है .. छद्म आवरण लिए ...!! जब से गांधी को पढ़ा है मन क्रांतिकारी हो गया है लेकिन गांधी का नाम लेते  ही ...गालियाँ सुनता हूँ ...इसलिए पढ़ा समझा लेकिन कहता बहुत कम हूँ ...!!

मन करता है जीवन को रोक दूँ ,और चला  जाऊं कहीं दूर वादियों में ..जंगल में ..पहाड़ों पे ..अकेला बिना किसी साधन सामग्री के ...बहुत खतरे हैं पर उनसे अनजान तो नहीं हूँ ..कम से कम मुझे पता तो होगा की जिस राह पे जा रहा हूँ वाहन खतरा है .. और क्या खतरा है .. अगर कोई जानवर खा गया तो कम से कम शारीर किसी के काम तो आया ... निष्काम भाव से आई मौत भी सुकून देगी ..!!हर तरफ स्वार्थ सिद्दी में लगे लोग मन को भाते नहीं है ..जी घबराता है ..इनसे .. मन विचलित रहता है ... दुखी रहता है ...चल रहा हूँ क्यूँ के जीवन चलने का नाम है ...चलते रहे,चलते रहिये ...!!

Saturday, April 13, 2013

मनो का अंतर्द्वंद ..!!

भगवान ने शरिर एक ही दिया है ,पर शायद मन दो दिए हैं ,जो आपस में उलझते रहते हैं -

बाहरी मन --
 माना अभी तक कुछ किया नहीं,माना कुछ कर के दिखाया नहीं, कोई पुरष्कार नहीं जीता ,कोई प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया,किसी मंच से बोला नहीं..लेकिन यार फिर भी मैं कुछ हूँ !!
मैं कुछ हूँ क्यूँ के मैं हर उस बात को गहराई से समझता हूँ ,सुनता हूँ,पढता हूँ जिसपे दुनिया वाह वाह कह उठती है ..जिसका सब गुणगान करते हैं ... मुझे भी समझ है उन् मुद्दो की जिनपे बतियाने वालो को बुद्धिजीवी कहा  जाता है ..तो क्या हुआ मेरी प्रतिक्रिया थोड़ी देर से आती है तो क्या हुआ जो मेरे जैसी प्रतिक्रिया पहले कोई दे चूका होता है ..कहा तो मैंने भी है न कुछ ..??

कितने लोग है ऐसे जो मेरे जैसी समझ रखते हैं ,तो क्या हुआ उनकी संख्या ज्यादा है भीड़ का हिस्सा तो नहीं हूँ न .. कम से कम किसी समूह में तो आता हूँ ..और देखना एक दिन ये समूह छोटे से छोटा होता जायेगा और मैं एक दिन चुनिन्दा लोगो में गिना जाऊंगा ..

भीतरी मन ---
 हा हा हा (अट्ठाहस )नहीं ये तो कामना हुई ..मेरी कोई कामना नहीं है .क्यूँ करूँ कामना जब मुझे पता है ये किसी की पूरी नहीं होती ..किसी और को पता हो न हो मुझे पता होना चाहिए मैं क्या हूँ ..क्या रखा है दिखावे में सब तो क्षणभंगुर है ..एक दिन सब छूट जाना है फिर किस बात की कामना ...कोई समझे न समझे तू समझ की तू क्या है ..बैठ शांति से कहीं पे दुनिया को भूल के और तलास खुद को ..जिस दिन खुद को तलाश लेगा तू जानेगा की तू किसी समूह का हिस्सा नहीं है बल्कि तू अपने आप में अद्वितीय है .. हमेशा से ..!!

दो मनो में चलने वाला ये द्वन्द पुराना है पर बरक़रार है पता नहीं कब ये बंद होगा ..किसे जितना चाहिए और कौन जीतेगा ?