Friday, May 17, 2013

नशा और मन ..!!


(“मैं जब बहुत छोटा था तब से मैं मेरे इस सपने को देख रहा हूँ ..) ..अक्सर मैं जब भी इस तरह की बात किसी के मुह से सुनता हूँ तो मुझे एक खालीपन का अहसास होता है और ये एकमात्र अहसास है जो मुझे होता है वाकई में बाकी अहसासों का तो जैसे मैं नाटक सा करता हूँ..कोई हंसा तो हंस दिया ,कोई रोया तो रो दिया ..माहोल गंभीर है तो गंभीर हो गया और खुशनुमा है तो खुश दिखा दिया ..पर ये जो खालीपन है ये मुझे महसूस होता है..हमेशा ..!
खालीपन इस बात का के मुझे ऐसा कुछ याद नहीं आता और जब मैं सोचने बैठता हूँ की क्यूँ नहीं आता तो दिमाक स्थिर हो जाता है एक चीज़ पे आके टिक जाता है या कहूँ शून्य में चला जाता है उस शून्य में जिसे नशे की लत ने मेरे जीवन में बनाया है, एक बड़ा सा शून्य जिसके पार देखने की क्षमता मेरे दिल और दिमाक में नहीं सी प्रतित होती है.मैं जब अपने अतीत को याद करता हूँ तो दूर दूर तक नशे में डूबा एक शख्स दिखाई देता है जिसे वर्तमान का भान नहीं,भूत उसे याद नहीं,भविष्य की कोई चिंता नहीं,बड़ी अजीब सी शख्शियत है सच में बड़ी अजीब...!
ये जो शख्स है उसने ना जाने कितने हँसने और रोने के लम्हे यूँ ही शून्य में तकते हुए गुजार दिए जिंदगी के ११ साल,अनमोल जीवन के अनमोल ११ साल अखंड नशे में गुजारने के बाद कोई आदमी सामान्य आदमी नहीं रह जाता ,सामजिक,आर्थिक,न्यायिक,आध्यात्मिक हर दृष्टिकोण से उसका जीवन असामान्य रहता है.इसी असामान्य स्थिति में जब कभी अतीत में पलट के देखता हूँ तो कुछ नहीं मिलता मन निराश हो उठता है की क्यूँ मैंने ओरों की तरह नहीं जिया अपने जीवन को ..खेलकूद,पढ़ाई लिखाई ,मस्तिमजाक ,घूमना फिरना,कोई लक्ष्य बनाके चलना ,कोई शौख रखना,राजनीतक-सांस्कृतिक या कोई रचनात्मक कार्य ..कुछ भी तो नहीं किया मैंने ..मैं बस जिए जा रहा हूँ उसी शून्य में और जीवन उस प्राकृतिक दृश्य की तश्वीर की मानिंद हो गया है  जिसको बनाने वाला उसे बनाये जा रहा है पर रंग नहीं भर रहा सफ़ेद पन्ने और काली पेन्सिल के निशाँ के अलावा दूसरा कोई रंग नहीं दिखता मुझे मेरी पिछली जिंदगी के कैनवास पर ..!!
और अब तो हालत ये है की नशे में मैं हूँ की मुझपे नशा है ये भेद करना खुद मेरे लिए मुश्किल है इतना शातिर हो गया हूँ मैं  की मेरी इच्छा नहो तो किसी को भनक तक ना लगे की मैं अपने होश में नहीं हूँ.पर आखिर कब तक चलेगा ऐसा ?कब तक मैं यूँ ही शून्य में ताकते हुए जीवन काटता जाऊंगा और फिर अतीत को खाली बनाये रखूँगा ? कोई नहीं जानता सिवा मेरे,पर मैं ये भी जानता हूँ की जब भी मैं नशे से बाहर  आने की कोसिस करता हूँ ये दुनियावी बातें और यहाँ का माहोल मुझे बेचैन कर देता है और फिर मैं लौट जाता हूँ अपनि दुनिया में उस दुनिया में जहाँ कोई भाव नहीं,खुशी नहीं गम नहीं ..हंसना ,रोना जीवन के हसीं सपने कुछ नहीं है वहाँ, अगर कुछ है तो एक स्थिर और सफ़ेद जिन्दगी जिसपे वक्त के हाथों रोज प्रतिक्षण बनती जा रही है एक बेरंग तश्वीर...!!







Monday, May 6, 2013

यारां दा टशन (एक जीवन शैली जो देश के विकाश का पैमाना है)

 चंडीगढ़ का नाम सुनते ही देश दुनिया की थोड़ी खबर रखने वाले लोगो के मुह से अनायास ही निकल पड़ता है ,वाह ! शहर हो तो ऐसा.
वाकई ये शहर अलग है ,यहाँ साफ़ सुथरी सड़के हैं ,कोई गन्दा नाला नहीं है,पानी निकासी की व्यवस्था ऐसी की बदल फटने पे भी आधा घंटे में पूरा पानी सडको से साफ़ हो जाये. पूर्व नियोजित ढंग से सेक्टर वाईज़ बसाया हुआ शहर .यहाँ के बंगले देखो तो दंग रह जाओ ,हर बंगले के आगे हरा भरा बगीचा,चमचमाती  महँगी महँगी कारें ,महंगे विलायती कुत्ते ,सुरक्षा में जवान आदि आदि ..पूरा एक मायाजाल है जो किसी भी संतोषी जीव के मन में अपने हाल की स्थिति के बारे में असंतोष पैदा कर दे.

यहाँ की जीवन शैली भी बड़ी अजीब है (गाँव वालो के लिए पूरी फिल्मी ) सुबह १० बजे घर से महँगी गाडी में बैठ के निकलना ,२ करोड के खरीदे हुए शोरूम में जा के बैठना ,भले उसमे कमाई हो न हो ..पर सोसाबाजी पूरी  होती है ..शोरूम में एयर कंडीसन लगाया ,दो कर्मचारी रखे ,दोपहर में पिज्जा खाया ,जैसे तैसे शाम के ६ बजाते हैं ,और फिर जैसे ही ६ बजे दूकान बंद ,और शाम के स्वागत की तैयारी..घर पे गए शावर लिया..इत्र वित्र छिड़का ... शामके मूड के हिसाब से गाडी निकाली ..और निकल पड़े ... किसी पब,बार,डिस्को,के लिए ..देर रात तक पार्टी शार्टी की..और घर आ के सो गए ..इसको नाम दिया "यारां दा टशन ".

मेरे एक मित्र ने मुझे शाम की पार्टी में निमंत्रित किया ,ये मेरे लिए पहला मौका था,तो मुझे मालूम नहीं था की पार्टी दरअसल कहते किसको हैं ,मैं जींस पे कुरता डाल के चला गया,जो पता बताया था वहाँ आधा घंटे तक तलाशने के बाद मैं पहुंचा. वो एक ठेठ विलायती तरीके का डिस्को क्लब था ,बाहर दो बाहुबली खड़े थे बोले 'पास प्लीज़' आधा मिनट तक उनकी बात का मतलब समझते हुए मैंने जेब से मोबाइल निकाला और मित्र को फोन किया..वो अंदर अँधेरी सी सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते हुए आया और मुझे अंदर ले के गया ..
जब अंदर पहुंचे तो वहाँ की छटा देख के मन घबराने लगा .. इतना शोर शराबा ,हायो रब्बा हो रहा था ..मित्र मेरे साथ खड़ा था कुछ सुनने की गुंजाइश नहीं थी तो बस बार बार मेरी तरफ देख के मुशकुरा रहा था ..और मैं फटी आंखो से तथाकथित आधुनिक समाज के जवान लोगो को देख रहा था जिनमे लड़के और लड़कियां दोनों थी . कुछ काकी ,फूफी भी लग रही थी.
करीब १० मिनट तक सब देखने और सहने के बाद मेरा सब्र टूट गया मैंने मित्र से जरा बाहर आने का इशारा किया , बाहर आते ही मैंने उससे जाने की आज्ञा मांगी ..तो मुझे हिकारत की नजर से देखने लगा बोला " अबे हमेसा गंवार ही रहेगा क्या , जिंदगी के मजे कब लेगा ?" ये सवाल मेरे लिए महत्वपूर्ण था और मैं उसका जवाब दे भी सकता था ,पर फिलहाल मैंने वहाँ से जाने में ही भलाई समझी,सो चला आया .

बाहर आने पे मुझे ऐसा प्रतीत हुआ की मानो कुम्भीपाक  नरक से सीधे निकल के आ रहा हूँ.. आखिर कैसे जीते हैं ये लोग ऐसे माहोल में..अपने मन के सन्नाटे को मिटाने के लिए ये लोग डिस्को में तेज आवाज पे नाचते हैं,लेकिन मन का सन्नाटा ,बाहरी आवाज से कैसे मिटेगा ? जिस नशे में चूर ये लोग नाचा गा रहे हैं वो तो कुछ देर का है उसके उतारते ही फिर वो ही सन्नाटा इन्हें घेर लेगा .. !

ऐसे विकसित शहर की जवान पीढ़ी इस तरह अपनी जवानी जाया कर रही है देख के दुःख हुआ ..क्या ये है वो विकाश और उसका पैमाना जिसके लिए पूरा भारत और उसकी हर आने वाली सरकार वादे  कर कर के सब्जबाग दिखा रही है ? अगर इसी को विकाश कहते हैं तो फिर इससे तो अच्छा हम जंगली ही ठीक थे ,कम से कम जंगली तो थे ..!!






जीवन परिभाषा



पिछले दिनों माँ के पास बैठा था. मेरी उम्र २७ की हो गई है तो माँ ने स्वभाविक रूप से मुझसे एक सवाल किया की “छोरी देखूं तेरे खातिर ?
फिर मेरे जवाब का इन्तजार किये बैगेर या यूँ कहूँ उसे अनसुना करते हुए मुझे बताने लगी मेरी बुआ के लड़के हैं न वो प्रकाश भाईसाहब उनके दोस्त की बहन की बेटी है ,स्कूल में पढाती है टीचर है ,लम्बाई थोड़ी कम है पर घर के सारे काम जानती है ,मुझे अच्छी तो लगी पर मुझे ऐसे लड़की नहीं चाहिए जो पहले से टीचर है मैं तो ऐसी ढूंढ रही हूँ जो मेरे पास आके फिर टीचर बने .भले फिर स्कूल में पढाओ जा के घर के का काम क्या है मैं ही कर लुंगी ,थोडा तो वो भी कर ही सकती है |तू बोल क्या कहता है ?

मैं बड़े अनमने मन से इसे सुन रहा था,मैंने लड़की के सारे विशेषणों को किनारे रखते हुए,और कमियों को नजरअंदाज करते हुए शादी के महत्त्व पे सवाल खड़ा कर दिया ..मैंने माँ से पुछा की कोई और विकल्प नहीं है जीने का ? क्या शादी जरुरी है ? तू क्यूँ किसी अनजान लड़की को मेरे तुम्हारे जीवन में लाना चाहती है? छोड़ न मैया मुझे नहीं करनी शादी वादी , मुझे अकेले ही अपने ढंग से जीवन जीना है |

इतना सुनना था की माँ ने मेरी बातों को उटपटांग बता दिया और बोली ... यही जीवन है ,घर तो बसा के जाउंगी तेरा अकेला रहेगा तो कौन करेगा तेरी देखभाल अभी तो मैं हूँ मेरे हाथ पाँव सलामत है पर कितने दिन ,बाबा भी अब कमजोर होने लगे हैं जब से उनकी तबियत बिगड़ी है , उनके सामने ऐसी बात मत कर देना उन्हें तकलीफ होगी. तुझे दिक्कत क्या है शादी से, वंश आगे कैसे बढ़ेगा ..अच्छी लड़की मिल जायेगी हर कोई तेरी सुधा भाभी जैसी नहीं होती..समझा ? ये जो टीचर लड़की है न वैसे अच्छी है बस मुझे लम्बाई में थोडा लगता है ५.३ तो होगी, मेरे जितनी है तुझे अगर दिक्कत नहीं हो तो मैं बात करती हूँ ,तू देख आ लड़की को, बोल ? अच्छे घर की लड़की है बिना बाप की है गरीब भी है हमें कुछ नहीं चाहिए वैसे भी एक साडी के साथ ही लाऊंगी बहु को,तू बोलेगा  तो घोड़ी,बजा और रिसेप्सन भी नहीं करेंगे .लड़की वालो को मैं मना लुंगी. बोल ?

मुझे अब घबराहट होने लगी थी तो मैंने वहाँ से उठने में ही भलाई समझी ,मैंने कहा ठीक है तू कर तेरेको जो करना है,मैं तो इस दुनिया में ही तेरे मर्ज़ी से आया हूँ हक है तेरा पूरा ,बस इतना सुन ले की मेरे पास एक ही जीवन है जिसे मैं गृहस्थी के ढर्रे पे कुर्बान नहीं करना चाहता | इसके बावजूद भी तू अगर यह चाहती है तो देख ले तेरे हिसाब से .. मैं खेत जाता हूँ ,रात को देर से आऊंगा खाना बाबा के साथ खा लियो तुम.

जब सब मुझे ये पूछते हैं की मैं शादी क्यूँ नहीं करना चाहता तो मेरा जवाब एक सवाल होता है एक सवाल जो यदा कदा जेहन में आ ही जाता है की क्या वाकई इंसान के लिए यही एक तरीका उचित है जीने के लिए के पढ़ो लिखो,शादी करो ,बच्चे करो बच्चों को पालो पढाओ लिखाओ ,बड़ा करो, शादी करो, नाती दोहितों को के साथ समय गुजारो राम रहीम का नाम लो और बूढ़े हो जाओ हुए खांसने लगो,जब तक मौत की हिचकी न आ जाये ..खांसते रहो और जीवन की ढर्रे पे नैया को हांकते रहो ? क्या वाकई बस यही है जीवन की परिभाषा ?

अगर हाँ तो कितना व्यर्थ है जीवन जहाँ में , आखिर इतना कष्ट ,इतनी पीड़ा सहके जनम लो ,फिर तरह तरह के गम और दुःख सह के जहाँ में जियो किसलिए जनम के मरने के लिए ?नहीं ये तार्किक नहीं लगता ये इतने छोटे उद्देश्य के लिए विधाता ने  मानव रुपी इतनी जटिल सरंचना का निर्माण नहीं किया होगा ,कोई तो राज,रहस्य होगा इस जीवन का ?आखिर क्यूँ ये दुनिया अस्तित्व में आई ,बनके के उजड़ने के लिए ?

हम जब कभी थोडा रूककर अपने चारो तरफ देखोगे तो हर किसी को एक जैसे ढर्रे पे चलता हुआ पाओगे. ये जानते हुए की इस ढर्रे पे चलते चलते ये जीवन खतम हो जाना है.हम क्यूँ ऐसे कुए का मेढंक बनना पसंद करते हैं जिससे बाहर हम घुसने के बाद निकल ही नहीं पाएंगे.क्या सिर्फ इसलिए की उस कुए में थोडा पानी है अरे पानी के लिए तो समंदर है ,तालाब है,माना थोड़े असुरक्षित हैं उनका पानी थोडा गन्दा और कड़वा है पर आज़ादी तो होगी बाहर की खुली हवा खाने की ,एक अँधेरे कुए में घुट घुट के तो नहीं मरेंगे..

वंश चलाने के लिए दुनिया में करोडो बच्चे अनाथ हैं एक दो को गोद लेके भी वंश चल सकता है  वंश के लिए शादी कर के व्यर्थ जीवन गंवाना मुझे गंवारा नहीं मैं लगा हूँ अपने जीवन की परिभाषा अपने हाथों लिखने में ..जिस दिन समझने लायक हो गई ..सबको बताऊंगा की ..बाकी विधाता सब जानता है ,जो करेगा अच्छा ही होगा ..!!